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________________ www.vitragvani.com 168] [सम्यग्दर्शन : भाग-4 राजा को लगा कि इस बार तो तीर्थङ्कर भगवान पधारे हैं, इसलिए रेवतीदेवी जरूर साथ आवेगी। परन्तु रेवतीरानी ने कहा कि अरे महाराज! इस समय, इस पञ्चम काल में तीर्थङ्कर कैसे? भगवान ने इस भरतक्षेत्र में एक चौबीसी में चौबीस ही तीर्थङ्कर होना कहा है और ऋषभदेव से लेकर महावीर स्वामी तक चौबीस तीर्थङ्कर होकर मोक्ष को पधार चुके हैं। यह पच्चीसवें तीर्थङ्कर कहाँ से आये? यह तो किसी मायावी का मायाजाल है। मूढ़ लोग, देव के स्वरूप का विचार भी नहीं करते और यों ही दौड़े चले जाते हैं। बस, परीक्षा हो चुकी... विद्याधर राजा को विश्वास हो गया कि इन रेवतीरानी की जो प्रशन्सा गुप्ताचार्य ने की है, वह योग्य ही है, वह सम्यक्त्व के सर्व अङ्गों से शोभायमान हैं। क्या पवन से कभी मेरुपर्वत हिलता होगा? नहीं; उसी प्रकार सम्यग्दर्शन में मेरु समान निष्कम्प सम्यग्दृष्टि जीव, कुधर्मरूपी पवन द्वारा किञ्चित्मात्र चलायमान नहीं होते। उन्हें देव-गुरु-धर्म सम्बन्धी मूढ़ता नहीं होती। वे यथार्थ पहिचान करके सच्चे वीतरागी देव-गुरु-धर्म को ही नमन करते हैं। रेवतीरानी की ऐसी दृढ़ धर्मश्रद्धा देखकर विद्याधर को अत्यन्त प्रसन्नता हुई और वास्तविक स्वरूप में प्रगट होकर उसने कहा - हे माता! मुझे क्षमा करो। मैंने ही चार दिन तक ब्रह्मा, विष्णु, महेश, आदि का इन्द्रजाल रचा था। गुप्ताचार्य देव ने आपके सम्यक्त्व की प्रशंसा की, इससे आपकी परीक्षा करने के लिए ही मैंने यह सब किया था। अहा! धन्य है आपकी श्रद्धा को! धन्य है! आपकी Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007771
Book TitleSamyag Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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