________________
www.vitragvani.com
164]
[सम्यग्दर्शन : भाग-4
जो देव न हो, उसे देव मानना, वह देवमूढ़ता है। ऐसी मूढ़ता धर्मी को नहीं होती। मिथ्यामत के देवादिक बाह्य में चाहे जितने सुन्दर दिखते हों, ब्रह्मा-विष्णु या शंकर के समान हो, तथापि धर्मी-जीव उनके प्रति आकर्षित नहीं होते। मथुरा की राजरानी रेवतीदेवी ऐसे सम्यक्त्व को धारण करनेवाली हैं तथा जैनधर्म की श्रद्धा में वे बहुत दृढ़ हैं, उन्हें धर्मवृद्धि का आशीर्वाद कहना तथा वहाँ विराजमान सुरत-मुनि कि जिनका चित्त रत्नत्रय में मग्न है, उन्हें वात्सल्यपूर्वक नमस्कार कहना।
-इस प्रकार आचार्यदेव ने सुरत मुनिराज को तथा रेवती रानी को सन्देश भेजा परन्तु भव्यसेन मुनि को तो याद भी न किया; इससे राजा को आश्चर्य हुआ, और पुन: आचार्य महाराज से पूछा कि अन्य किसी से कुछ कहना है ? परन्तु आचार्य देव ने इससे अधिक कुछ भी नहीं कहा।
इससे चन्द्रराजा को ऐसा लगा कि क्या आचार्यदेव, भव्यसेन मुनि को भूल गए होंगे? – नहीं, नहीं, वे भूले तो नहीं हैं, क्योंकि वे विशिष्ट ज्ञान के धारक हैं, इसलिए उनकी इस आज्ञा में अवश्य ही कोई रहस्य होगा। ठीक, जो होगा वह वहाँ प्रत्यक्ष दिखायी देगा – इस प्रकार समाधान करके, आचार्यदेव के चरणों में नमस्कार करके वे मथुरा की ओर चल दिये।
मथुरा में आकर सर्व प्रथम उन्होंने सुरतमुनिराज के दर्शन किए, वे अत्यन्त उपशान्त और शुद्धरत्नत्रय के पालन करनेवाले थे। चन्द्रराजा ने उनसे गुप्ताचार्य का सन्देश कहा उनकी ओर से नमस्कार किया।
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.