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[ सम्यग्दर्शन : भाग-4
तुम्हारे सम्यक्त्व को तथा धन्य है तुम्हारी निर्विचिकित्सा को ! इन्द्र महाराज ने तुम्हारे गुणों की जैसी प्रशंसा की थी, वैसे ही गुण मैंने प्रत्यक्ष देखे हैं । हे राजन! मुनि के वेश में मैं ही तुम्हारी परीक्षा करने आया था। धन्य है आपके गुणों को ! - ऐसा कहकर देव ने नमस्कार किया।
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वास्तव में मुनिराज को कोई कष्ट नहीं हुआ - ऐसा जानकर राजा का चित्त प्रसन्न हो गया, और वे बोले – हे देव ! यह मनुष्य शरीर तो स्वभाव से ही मलिन है तथा रोगादिक का घर है । अचेतन शरीर मैला हो, उससे आत्मा को क्या ? धर्मी का आत्मा तो सम्यक्त्वादि पवित्र गुणों से शोभायमान है। शरीर की मलिनता को देखकर जो धर्मात्मा के गुणों के प्रति अरुचि करता है, उसे आत्मदृष्टि नहीं है; देहदृष्टि है । अरे, चमड़े के शरीर से ढँका हुआ आत्मा अन्दर सम्यग्दर्शन के प्रभाव से शोभायमान है, वह प्रशंसनीय है ।
उदायन राजा ऐसी श्रेष्ठ बात सुनकर देव बहुत प्रसन्न हुआ और उसने राजा को कई विद्याएँ दीं तथा अनेक वस्त्राभूषण दिये परन्तु राजा को उन सबकी इच्छा कहाँ थी ? वे तो समस्त परिग्रह का त्याग करके वर्द्धमान भगवान के समवसरण में गए और मुनिदशा अङ्गीकार की तथा केवलज्ञान प्रगट करके मोक्ष को प्राप्त हुए । सम्यग्दर्शन प्रताप से वे सिद्ध हुए । उन्हें मेरा नमस्कार हो !
[ यह छोटी सी कथा हमें ऐसा बोध देती है कि धर्मात्मा के शरीरादि को अशुचि देखकर भी उनके प्रति ग्लानि मत करो तथा उनके सम्यक्त्वादि पवित्र गुणों का बहुमान करो। ] •
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