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________________ www.vitragvani.com 132] [सम्यग्दर्शन : भाग-4 ४. सम्यग्दृष्टि का अमूढ़दृष्टि अङ्ग संमूढ़ नहिं सब भाव में जो, -सत्यदृष्टी धारता। वो मूढ़दृष्टिविहीन सम्यग्दृष्टि निश्चय जानना ॥२३२॥ जिसे आत्मा के ज्ञानस्वरूप की दृष्टि हुई है, वह धर्मात्मा अनेक प्रकार की विपरीत बातें सुनकर भी उलझता नहीं है। विपरीत युक्तियाँ सुनकर भी उसे अपने स्वरूप में उलझन या शङ्का नहीं होती। वस्तु का स्वरूप अनेक विद्वान भिन्न प्रकार से कहें, वहाँ समकिती धर्मात्मा को उलझन नहीं होती कि यह सत्य होगा या यह सत्य होगा! अनेक बड़े-बड़े विद्वान एकत्रित होकर विपरीत प्ररूपणा करे, तथापि वहाँ धर्मी शङ्कित नहीं हो जाता। ज्ञानानन्दस्वभाव की जो दृष्टि हुई है, उसमें निःशङ्करूप से वर्तता है। सर्व पदार्थ के स्वरूप को समकिती यथार्थ जानता है। शास्त्रों में पूर्व में हो गये तीर्थङ्कर इत्यादि का; दूरवर्ती असंख्य द्वीपसमुद्र-सूर्य-चन्द्र-मेरु और विदेहक्षेत्र का तथा सूक्ष्म परमाणु इत्यादि का वर्णन आता है, वहाँ धर्मी को शङ्का या उलझन नहीं होती कि यह कैसे होगा ! मैं तो ज्ञायकभाव हूँ, ज्ञायकभाव में मोह है ही नहीं तो उलझन कैसी? वह निर्मोहरूप से अपने ज्ञानस्वरूप को अनुभव करता है। जैसे लौकिक में चतुराईवाले मनुष्य अनेक प्रकार के व्यवधानकारक प्रसङ्ग आ पड़ने पर उलझते नहीं परन्तु हल कर डालते हैं; इसी प्रकार धर्मात्मा अपने स्वभाव के पन्थ में उलझते नहीं; अनेक प्रकार की जगत् की कुयुक्तियाँ आ पड़ें, तो भी धर्मात्मा अपने आत्महित के कार्य में उलझते नहीं। चाहे जिस प्रकार से भी अपना आत्महित क्या है? – यह शोध लेते हैं। इस Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007771
Book TitleSamyag Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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