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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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मृत्यु महोत्सव
___ मृत्यु और फिर महोत्सव! इस दोनों को मेल किस प्रकार है? ऐसा कदाचित् आश्चर्य होगा। लोग तो मृत्यु के समय शोक करेंगे... मृत्यु, वह कहीं उत्सव होता है ? हाँ... आराधना के बल से मृत्यु का प्रसङ्ग भी महोत्सवरूप बन जाता है। आराधना के महोत्सवसहित जिसने मृत्यु की, (समाधिमरण किया), वह जीव प्रशंसनीय है।
सम्यग्दर्शन के बिना अनादि काल से जीव ने असमाधिमरण किया है और मोह से उसका मानव जीवन निष्फल गँवा कर चला गया है परन्तु जिसका जीवन, धर्म की आराधनासहित है और ठेठ तक वह सम्यक्त्व आदि की आराधना टिका रखकर आराधकभाव से मरण करता है, उसका जीवन भी धन्य है और मृत्यु भी प्रशंसनीय है। उसके लिये तो वह मृत्यु भी आराधना का एक महोत्सव समान है। ऐसे मृत्यु प्रसङ्ग में साधक जीव अपनी बोधिसमाधि की अखण्डता की भावना भाते हुए प्रार्थना करता है कि
मृत्युमार्गे प्रवृत्तस्य वीतरागो ददातु मे।
समाधिबोधिपाथेयं यावन्मुक्तिपुरीपुरः॥ हे वीतरागदेव! मृत्युमार्ग में प्रवृत्त ऐसे मुझे, अर्थात् जिसकी मृत्यु नजदीक है ऐसे मुझे, मैं मुक्तिपुरी में पहुँचू तब तक समाधि और बोधिरूप पाथेय प्रदान करो।
मृत्यु का अवसर आने पर साधक को एक ही भावना है कि मेरे रत्नत्रयरूप बोधि और स्वरूप की समाधि अखण्डरूप से
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