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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
साथ गोष्ठी करेंगे और सिद्ध जैसे आनन्द को अनुभव करेंगे। हे जननी ! इन संयोगों में हमें चैन नहीं पड़ता, हमारा चित्त तो आत्मा में लगा है। (प्रवचनसार, गाथा २०१-२०२ में दीक्षा प्रसङ्ग में दीक्षार्थी जीव, शरीर की जननी इत्यादि को वैराग्य से सम्बोधन करता है। वह बात गुरुदेव ने यहाँ स्मरण की थी... मानों ऐसा कोई दीक्षा प्रसङ्ग नजर के सामने बन रहा हो - ऐसे भाव गुरुदेवश्री के श्रीमुख से निकलते थे।)
-इस प्रकार संसार से विरक्त होकर जो राजकुमार दीक्षा ले और अन्दर लीन होकर आत्मा के आनन्द को अनुभव करे... वाह, धन्य वह दशा!
इसी वैराग्य के बारम्बार घोलनपूर्वक प्रवचन में भी गुरुदेव ने कहा
धर्मी राजकुमार हो, विवाह भी हुआ हो, वह वैराग्य होने पर माता को कहता है कि हे माताजी! यह राजमहल और रानियाँ, ये बाग-बगीचे और खान-पान, इन संयोगों में मुझे कहीं चैन नहीं पड़ता, इनमें कहीं मुझे सुख भासित नहीं होता; माँ! इस संसार के दुःख अब सहन नहीं होते। अब तो मैं मेरे आनन्द को साधने जाता हूँ-इसलिए तू मुझे आज्ञा दे ! इस संसार से मेरा आत्मा त्रस्त हुआ है, फिर से अब मैं इस संसार में नहीं आऊँगा। अब तो आत्मा के पूर्णानन्द को साधकर सिद्धपद में जाऊँगा। माता! तू मेरी अन्तिम माता है, दूसरी माता अब मैं नहीं बनाऊँगा; दूसरी माता को फिर से नहीं रुलाऊँगा; इसलिए आनन्द से आज्ञा दे। मेरा मार्ग अफरगामी है। संसार की चार गति के दुःख सुनकर उनसे मेरा आत्मा त्रस्त
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