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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 3
यह अध्यास, ज्ञानस्वभाव के बारम्बार अभ्यास द्वारा छूट सकता है क्योंकि विकारी क्रिया आत्मा के स्वभावभूत नहीं है; इसलिए वह छूट सकती है।
शास्त्रों में निश्चय और व्यवहार का सब कथन है, वहाँ अनादि के व्यवहार से आदतन अज्ञानी जीव, निश्चय को उपेक्षित कर एकान्त व्यवहार को पकड़ लेता है । आत्मा का ज्ञायकस्वभाव सत्, जिसमें पर का संग नहीं, सती जैसा पवित्र - जिसमें विकारी परभाव की छाया भी नहीं - ऐसे स्वभाव का संग छोड़कर जो विकार के संग में जाता है, वह जीव बहिर्दृष्टि अज्ञानी होता हुआ क्रोधादिरूप परिणमित होता है ।
सती अंजना के पति पवनकुमार ने २२ - २२ वर्ष तक उसे देखा नहीं, उसे उपेक्षित किया... परन्तु सती के मन में पति के आदर के अतिरिक्त दूसरा विचार नहीं । अन्ततः पवनकुमार को पश्चाताप हुआ कि मैंने बिना कारण सती को उपेक्षित किया... इसी प्रकार 'पवन' जैसा चञ्चल अज्ञानी जीव, अनादि से ज्ञप्तिक्रियारूप सती को छोड़कर विकार का कर्ता होता है... उसे
श्रीगुरु समझाते हैं कि अरे मूढ़ ! यह विकार क्रिया तेरी नहीं है; तेरी तो ज्ञतिक्रिया ही है, वही तेरे स्वभावभूत है... इसलिए उसमें तन्मय हो और विकार का कर्तृत्व छोड़ ! गुरु के उपदेश से इस प्रकार भेदज्ञान होते ही, जीव अपनी स्वभावभू ज्ञप्तिक्रियारूप परिणमता है और विभावभूत विकारीक्रिया की कर्तापने का त्याग करता है और निजानन्द का स्वाद लेता है ।
देखो, यह जीमन ! जैसे बड़े उत्सव में मैसूरपाक इत्यादि का
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