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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] [65 अरूपी आत्मा का मैं अनुभव करता हूँ और ऐसे अपने स्वरूप का अनुभव करता हुआ मैं प्रतापवन्त वर्तता हूँ। स्वसंवेदन प्रत्यक्ष आत्मा के अनुभव से प्रतापवन्त वर्तते हुए ऐसे मुझे, मुझसे बाह्य वर्तनेवाले समस्त पदार्थों में कोई भी परद्रव्यपरमाणुमात्र भी अपनेरूप भासित नहीं होता। मुझसे बाहर जीव और अजीव, सिद्ध और साधक, – ऐसे अनन्त परद्रव्य अपनी -अपनी स्वरूपसम्पदासहित वर्त रहे हैं, तथापि स्वसंवेदन से प्रतावपन्त वर्तते हुए मुझे, वे कोई परद्रव्य किञ्चित्मात्र अपनेरूप से भासित नहीं होते। मेरा शुद्धतत्त्व परिपूर्ण है, वही मुझे अपनेरूप से अनुभव में आता है। मेरी पूर्णता में परद्रव्य का एक रजकणमात्र मुझे अपनेरूप भासित नहीं होता कि जो मेरे साथ (भावकरूप से अथवा ज्ञेयरूप से) एक होकर मुझे मोह उत्पन्न करे ! निजरस से ही समस्त मोह को उखाड़ दिया है। निजरस से ही समस्त मोह को उखाड़कर – फिर उसका अंकुर उत्पन्न न हो, इस प्रकार उसका नाश करके मुझे महान् ज्ञान प्रकाश प्रगट हुआ है। मेरे आत्मा में से मोह का नाश हो गया है और अपूर्व सम्यग्ज्ञान प्रकाश फैल गया है – ऐसा मैं अपने स्वसंवेदन से नि:शङ्करूप से जानता हूँ। मेरे आत्मा में शान्तरस उल्लसित हो रहा है... अनन्त भव होने की शङ्का निर्मूल हो गयी है... और चैतन्यानन्द के अनुभवसहित महान ज्ञान प्रकाश प्रगट हो गया है। – इस प्रकार श्रीगुरु द्वारा परम अनुग्रहपूर्वक शुद्ध आत्मा का स्वरूप समझाये जाने पर, निरन्तर उद्यम द्वारा समझकर शिष्य अपने आत्मा का ऐसा अनुभव करता है। (श्री समयसार, गाथा 38 पर पूज्य गुरुदेवश्री का प्रवचन) Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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