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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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_ 'मैं' अपने ही अनुभव से प्रत्यक्ष ज्ञात होऊँ - ऐसा चैतन्यमात्र ज्योति आत्मा हूँ। राग से - इन्द्रियों से मेरा स्वसंवेदन नहीं होता। चैतन्यमात्र स्वसंवेदन से ही मैं प्रत्यक्ष होता हूँ। अपने मतिश्रुतज्ञान को अन्तर में एकाग्र करके, मैं अपना स्वसंवेदन प्रत्यक्ष करता हूँ। ___अपने मति-श्रुतज्ञान को इन्द्रियों से और राग से भिन्न करके स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा मैं अपना अनुभव करता हूँ। - इस प्रकार स्वसंवेदन प्रत्यक्ष में आनेवाला मैं हूँ। अन्तर्मुख अनुभव से जो प्रत्यक्ष हुआ, वही मैं हूँ। मेरे स्वसंवेदन में अन्य सब बाहर रह जाता है, वह मैं नहीं हूँ; स्वसंवेदन में चैतन्यमात्र आत्मा प्रत्यक्ष हुआ, वही मैं हूँ। ___ 'मैं एक हूँ' - चिन्मात्र आकार के कारण मैं समस्त क्रमरूप तथा अक्रमरूप वर्तनेवाले व्यावहारिक भावों से भेदरूप नहीं होता, इसलिए मैं एक हूँ। ज्ञान की ही अखण्डमूर्ति मैं एक हूँ। पर्याय में मनुष्य-देव आदि भाव क्रमरूप हों, या योग-लेश्या-मति-श्रुतादि ज्ञान अक्रम से एकसाथ हों, किन्तु उन भेदरूप व्यवहारभावों के द्वारा मेरा भेदन नहीं हो जाता। मैं तो चिन्मात्र एकाकार ही रहता हूँ - मेरे अनुभव में तो ज्ञायक एकाकार स्वभाव ही आता है - इसलिए मैं एक हूँ। अपने आत्मा का मैं एकरूप ही अनुभव करता है... खण्ड-खण्ड भेदरूप अनुभव नहीं करता। पर्याय को चैतन्य में लीन करके चैतन्यमात्र ही आत्मा का अनुभव करता हूँ। आत्मा को रागादियुक्त अनुभव नहीं करता; चैतन्यमात्र एकाकार ज्ञायक भावरूप ही अनुभव करता हूँ... अपने आत्मा को ज्ञायकस्वरूप से ही देखता हूँ।
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