________________
www.vitragvani.com
204]
[सम्यग्दर्शन : भाग-3
आश्रय नहीं, आश्रय तो एक आत्मा का ही है; 'प्रज्ञा' जहाँ आत्मा की ओर ढलकर एकाग्र हुई, वहाँ बन्ध से वह पृथक् पड़ ही गयी। ज्ञानपरिणति और आत्मा की एकता हुई, उसमें राग नहीं आया, उसमें बन्धभाव नहीं आया; इस प्रकार बन्ध पृथक् ही रह गया और आत्मा, बन्धन से छूट गया। इस प्रकार भगवती प्रज्ञा, बन्ध को छेदकर आत्मा को मुक्ति प्राप्त कराती है। ___ धीमी शान्त हलकवाले इस श्लोक में आचार्यदेव कहते हैं कि हे जीव! बन्ध से रहित ऐसे तेरे चिदानन्द आत्मा को अन्तर में अवलोकन करने के लिये तू धीर हो... धीर होकर, अर्थात् राग की आकुलता से जरा पृथक् पड़कर अन्तरोन्मुख हो! राग से पृथक् पड़कर जो अन्तर में ढला, उसने आत्मा और बन्ध के बीच प्रज्ञाछैनी को पटका। प्रवीण पुरुषों द्वारा सावधानी से पटकने में आयी हुई यह प्रज्ञाछैनी किस प्रकार पड़ती है ? शीघ्र पड़ती है, तत्क्षण ही आत्मा और बन्ध का भेदज्ञान करती हुई पड़ती है; जैसा ज्ञान अन्तर में ढला कि तुरन्त ही बन्ध को छेदकर आत्मा से पृथक् पाड़ डालता है। देखो! यह बन्ध को छेदने की छैनी ! यह प्रज्ञाछैनी ही मोक्ष का साधन है।
(१) एक तो ( प्रज्ञाछेत्री शितेयं ) प्रज्ञाछैनी तीक्ष्ण है।
(२) दूसरा (कथमपि) किसी भी प्रकार से, अर्थात् सर्व उद्यम को उसमें ही रोककर वह छैनी पटकी जाती है।
(३) तीसरा (निपुणैः ) निपुण पुरुषों द्वारा, अर्थात् मोक्ष के उद्यमी मोक्षार्थी पुरुषों द्वारा वह पटकी जाती है।
(४) चौथा (पातिता सावधानैः) सावधान होकर, अर्थात्
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.