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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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चैत्यपने के कारण अत्यन्त निकटता है, (शिष्य निकटता कहता है परन्तु एकता नहीं कहता) – ऐसी निकटता है कि मानो दोनों साथ ही हों; जहाँ ज्ञान है, वहीं राग है। इस प्रकार निकटता है तो उन्हें प्रज्ञाछैनी द्वारा वास्तव में किस प्रकार छेदा जा सकता है, दोनों का पृथक् अनुभव किस प्रकार होता है ?
देखो! यह भेदज्ञान की वास्तविक धगशवाले शिष्य का प्रश्न ! जिसे अन्तर में वास्तविक उत्कण्ठापूर्वक प्रश्न उत्पन्न हुआ है, उसे आचार्यदेव, भेदज्ञान की विधि समझाते हैं।
हे वत्स! आत्मा और बन्ध के नियत स्वलक्षणों की सूक्ष्म अन्तरंग सन्धि में प्रज्ञाछैनी को सावधान होकर पटकने से उन्हें छेदा जा सकता है। इस प्रकार बन्ध से पृथक् आत्मा का अनुभव किया जा सकता है - ऐसा हम जानते हैं।
देखो! आचार्यदेव, स्वानुभव से भेदज्ञान की विधि बतलाते हैं। आत्मा और बन्ध, अज्ञान से एक जैसे लगते हैं, परन्तु वास्तव में वे भिन्न ही हैं – ऐसा प्रज्ञा द्वारा हम जानते हैं। प्रज्ञाछैनी द्वारा उन्हें वास्तव में छेदा जा सकता है।
अन्तर में कुछ लक्ष्य बाँधकर शिष्य कहता है कि प्रभु! आप जो कहते हो, वह लक्ष्य में तो आता है परन्तु वास्तव में उन दोनों को छेदकर बन्ध से पृथक् आत्मा का साक्षात् अनुभव कैसे हो? अन्तर में पृथकता का अभ्यास करते-करते नजदीक आया हुआ शिष्य, भेदज्ञान की आतुरता से प्रश्न पूछता है, अन्तर की धगश से प्रश्न पूछता है। ऐसी तैयारी होने से श्रीगुरु उसे जिस प्रकार समझाते हैं, उस प्रकार तुरन्त ही वह समझ जाता है; इसलिए उसे अन्तर में
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