________________
www.vitragvani.com
176]
[ सम्यग्दर्शन : भाग - 3
पहले तो बाह्य स्थूल दृष्टि से देखने पर नव तत्त्वों को भूतार्थ कहा और अन्तरस्वभाव के समीप जाकर शुद्ध जीव का अनुभव करने पर उन नव तत्त्वों को अभूतार्थ कहा है - ऐसा अनुभव करना, वह दर्शनविशुद्धि है ।
अब, इसी बात को दूसरी शैली से कहते हैं ।
'इसी प्रकार अन्तर्दृष्टि से देखा जाए तो ज्ञायकभाव, जीव है और जीव के विकार का हेतु, अजीव है और पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध तथा मोक्ष जिनके लक्षण हैं- ऐसे केवल जीव के विकार हैं और पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध तथा मोक्ष - ये विकार के हेतु, केवल अजीव हैं। ऐसे यह नव तत्त्व, जीवद्रव्य के स्वभाव को छोड़कर, स्वयं और पर जिनके कारण हैं - ऐसे एक द्रव्य की पर्यायों के रूप में अनुभव करने पर भूतार्थ हैं और सर्व काल में अस्खलित एक जीवद्रव्य के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं असत्यार्थ हैं; इसलिए इन तत्त्वों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है । '
-
पहले, अज्ञानी के नव तत्त्व की बात थी, उसमें जीव और पुद्गल के संयोग से देखने का कथन था । यहाँ ज्ञानी के नव तत्त्व के विकल्प की बात है, उसमें जीव और अजीव, दोनों स्वतन्त्र द्रव्य हैं तथा जीव और अजीव दोनों में अलग-अलग सात तत्त्व हैं - यह बात ली है। अन्तरस्वभाव की दृष्टि से देखें तो एक ज्ञायकभाव ही भूतार्थ है और नव तत्त्व अभूतार्थ हैं । यह समझे बिना बाहर के सब भाव तो रण में पीठ दिखाने के समान है, उससे जीव को किञ्चित् धर्म नहीं होता । बाहर के भाव, जीव को किञ्चित्मात्र शरणरूप नहीं होते हैं।
Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.