________________
www.vitragvani.com
174]
[सम्यग्दर्शन : भाग-3
काल से नहीं जानी है; इसलिए कठिन लगती है, तो भी आत्मा के हित के लिए ध्यान रखकर समझना चाहिए,क्योंकि इसके अतिरिक्त आत्महित की दूसरी कोई विधि नहीं है। यदि रुचिपूर्वक समझना चाहे तो यह विधि, सहज है।
आत्मा में त्रिकालस्वभाव और वर्तमान अवस्था - ऐसे दो पहलू हैं । त्रिकालस्वभाव एकरूप है और अवस्था में अनेक प्रकार हैं। उसमें त्रिकाली एकरूप स्वभाव की दृष्टि छोड़कर बाह्य स्थूल दृष्टि से देखने पर नव तत्त्वों के विकल्प विद्यमान हैं । ' मैं जीव हूँ; शरीरादि अजीव हैं; दयादि के परिणाम, पुण्य हैं; हिंसादि के परिणाम, पाप हैं; पुण्य-पाप, दोनों आस्रव हैं; सम्यक्त्वादि के द्वारा उस आस्रव का रुकना संवर है; कर्म का खिरना, निर्जरा है; मिथ्यात्वादि भाव, बन्धन हैं और पूर्ण शुद्धता होने पर कर्मों का
अत्यन्त नाश, वह मोक्ष है।' - ऐसे नव तत्त्वों का रागमिश्रित विचार से निर्णय करने पर, वे नव तत्त्व भूतार्थ हैं परन्तु एकरूप ज्ञायक आत्मा का अनुभव करने के लिए तो यह विकल्परूप नव तत्त्व छोड़ने योग्य हैं। अकेले नव तत्त्वों की रागमिश्रित श्रद्धा भी अभी सम्यक्त्व नहीं है।
प्रश्न - इन नव तत्त्वों में ज्ञेय, हेय और उपादेय कौन-कौन तत्त्व हैं?
उत्तर - जाननेयोग्य तो सभी हैं; अर्थात्, नव तत्त्व तो ज्ञेय हैं। यहाँ नव तत्त्व विकल्परूप लिये हैं; इसलिए वे नव तत्त्व हेय हैं। नव तत्त्व के विकल्परहित एक शुद्ध आत्मा ही उपादेय है। जहाँ पर्याय अपेक्षा से कथन हो, वहाँ पुण्य-पाप, आस्रव-बन्ध को हेय
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.