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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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निकला है। जिसके पास नव तत्त्व की श्रद्धारूप वारदान नहीं है तो ऐसा समझना चाहिए कि वह जीव, आत्मा की श्रद्धारूपी केसर लेने के लिए नहीं निकला है परन्तु संसार भ्रमणरूप कोयला लेने निकला है।
जो जीव, शुद्ध आत्मा की श्रद्धारूपी माल लेने निकला हो, उसके पास सच्चे देव-गुरु के द्वारा कथित नव तत्त्वों की श्रद्धा ही वारदानरूप से होती है। पहले तत्त्वों का स्वीकार करने के पश्चात् उनके भेद का लक्ष्य छोड़कर, शुद्धनय के अवलम्बन से अभेद आत्मा का अनुभव करने से धर्म प्रगट होता है। जो कुतत्त्वों को मानता है और जिसे नव तत्त्वों का भान नहीं है, उसे तो चैतन्य का अनुभव होता ही नहीं।
जो जीव, शरीर की क्रिया से अथवा शुभविकल्पों से धर्म मनवाता है, वह फटा हुआ वारदान लेकर माल लेने निकला है। उसके फटे हुए थैले में सम्यग्दर्शनरूपी माल नहीं रहता है। अभी तो जीव और शरीर एकत्रित होकर बोलने इत्यादि का कार्य करते हैं, जो ऐसा मानता है कि उसने तो व्यवहार नव तत्त्वों को भी नहीं जाना है; उसे तो यथार्थ पुण्य की प्राप्ति भी नहीं होती तथा यदि नव तत्त्व के विचार में ही अटका रहे तो वह भी मात्र पुण्यबन्ध में अटक रहा है; उसे धर्म की प्राप्ति नहीं होती। नव तत्त्व को मानने के पश्चात् अभेद एक चैतन्यस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करनेवाले को अपूर्व धर्म प्रगट होता है और उसके लिए मुक्ति का द्वार खुल जाता है। यहाँ तो जो नव तत्त्व की व्यवहार श्रद्धा तक आया है, ऐसे
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