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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
नव तत्त्व कहाँ रहते हैं ? जीव और अजीव तो स्वतन्त्र तत्त्व हैं और उनके सम्बन्ध से सात तत्त्व होते हैं, उनमें जीव के सात तत्त्व, जीव की अवस्था में रहते हैं और अजीव के सात तत्त्व, अजीव की अवस्था में रहते हैं । अज्ञानी को उन दोनों की भिन्नता का भान नहीं है; इसलिए मानो कि जीव और अजीव दोनों एक होकर परिणमते हों - ऐसा उसे लगता है । अज्ञानी, भिन्न अखण्ड चैतन्यतत्त्व को चूककर जड़ और चेतन को एक मानता है और इस कारण पर्यायबुद्धि में वह नव तत्त्वों को ही भूतार्थरूप से अनादि से अनुभव कर रहा है परन्तु स्वभावसन्मुख ढलकर एकरूप स्वभाव का अनुभव नहीं करता है
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मुक्तस्वभाव की दृष्टि से तो आत्मा एकरूप है, उसमें नव तत्त्वों के भेद नहीं हैं परन्तु बाह्य संयोगीदृष्टि से, वर्तमान दृष्टि से देखो तो नव तत्त्व भूतार्थ दिखलाई देते हैं और यदि वर्तमान पर्याय को स्वभाव में एकाग्र करके वर्तमान में स्वभाव को देखो तो नव तत्त्व अभूतार्थ हैं और अकेला ज्ञायक आत्मा ही भूतार्थरूप से अनुभव में आता है। वहाँ यद्यपि संवर-निर्जरारूप परिणमन तो है परन्तु वह पर्याय अभेद अनुभव में समा गयी है ।
भगवान आचार्यदेव कहते हैं कि अखण्ड ज्ञायकवस्तु की दृष्टि से तो आत्मा में एकपना ही है और उसके आश्रय से एकपने की ही उत्पत्ति होती है । यद्यपि पर्याय में निर्मलता के प्रकार पड़ते हैं परन्तु वह पर्याय अभेद आत्मा में ही एकाग्र होती है; इसलिए अभेद आत्मा का ही अनुभव है।
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अज्ञानी को जड़-चेतन की एकत्वबुद्धि से अनादि से नव
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