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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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भेद का विकल्प नहीं है – ऐसा अनुभव ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान
और सम्यक्चारित्र है, वही मोक्ष का मार्ग है। अनुभव मारग मोक्ष का.... अनुभव है रसकूप।
जीव के भावरूप सात तत्त्व जीव में हैं तथा उसमें निमित्तरूप जड़ की अवस्था में सात तत्त्व हैं, वह अजीव में हैं - ऐसे सात प्रकार अकेले शुद्ध जीव में अथवा अकेले अजीव में नहीं होते हैं। इन नव तत्त्वों का बहुत-बहुत प्रकार से वर्णन कहा गया है, तद्नुसार नव तत्त्वों का निर्णय किये बिना आत्मा का स्वरूप नहीं समझा जा सकता और अपना स्वरूप क्या है ? - यह समझे बिना चैतन्य सुख की प्राप्ति नहीं होती है।
अमूल्य तत्त्व विचार में श्रीमद् राजचन्द्रजी कहते हैं कि - मैं कौन हूँ? आया कहाँ से? और मेरा रूप क्या? सम्बन्ध दुखमय कौन हैं ? स्वीकृत करूँ परिहार क्या॥ इसका विचार विवेकपूर्वक, शान्त होकर कीजिए। तो सर्व आत्मिकज्ञान के, सिद्धान्त का रस पीजिए॥
इसमें जीव के स्वरूप का विचार करके निर्णय करने को कहा है। जीव सम्बन्धी विचार करने पर उसमें नव तत्त्व के विचार आ जाते हैं। मैं, चैतन्यस्वरूप जीव हूँ; शरीरादि, अजीव हैं; वे मैं नहीं हूँ। पुण्य-पाप आस्रव और बन्धभाव, दु:खरूप हैं; संवर-निर्जराभाव, सुख का कारण हैं और धर्म हैं । मोक्ष, पूर्ण सुखरूप निर्मलदशा है; इस प्रकार एक जीव सम्बन्धी विचार करने पर उसमें नव तत्त्व आ जाते हैं । जीव और अजीव तो स्वतन्त्र तत्त्व हैं और उसमें से जीव की अवस्था में पुण्य-पाप-आस्रव-संवर-निर्जरा-बन्ध और मोक्ष
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