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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
गोता खाते हैं। जैसे, पानी के संयोग का ज्ञान कराने के लिए पीतल के कलश को भी पानी का कलश कहते हैं; उसी प्रकार जब जीव अपने विपरीतभाव से परिभ्रमण करता है, तब निमित्तरूप में जड़कर्म होते हैं, यह बताने के लिए 'कर्म ने जीव को परिभ्रमण कराया' - ऐसा व्यवहार का कथन है । उसके बदले अज्ञानी उस कथन को भी पकड़ बैठे हैं ।
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देखो! कर्मों ने जीव को परिभ्रमण कराया - ऐसी मान्यता को तो यहाँ व्यवहारश्रद्धा में भी नहीं लिया है। जीव- अजीव को भिन्न-भिन्न जानें, जीव की अवस्था में बन्धतत्त्व की योग्यता है और पुद्गल में कर्मरूप होने की उसकी स्वतन्त्र योग्यता है - ऐसे दोनों को भिन्न-भिन्न जानें, उसे यहाँ व्यवहार श्रद्धा कहा जाता है और वह सम्यग्दर्शन का व्यवहार है।
अभी लोगों को सम्यग्दर्शन के व्यवहार का भी ठिकाना नहीं है और वे चारित्र के व्यवहार में उतर पड़े हैं। अनादि की बाह्यदृष्टि है; इसलिए शीघ्र बाह्य त्याग में उतर पड़ते हैं। बाहर से कुछ त्याग दिखता है, इसलिए हमने कुछ किया है - ऐसा मानकर सन्तुष्ट हो जाते हैं परन्तु अन्दर में तो महा मिथ्यात्व का पोषण होता है, उसका कहाँ भान है ? मिथ्यात्व अनन्त संसार के परिभ्रमण का कारण है, उसके अभाव की दरकार भी नहीं करते हैं । अन्दर में सूक्ष्म मिथ्यात्वसहित बाह्य त्याग करके जीव नौवें ग्रैवेयक तक गया है और चार गतियों में परिभ्रमण किया है। देखो, नौवें ग्रैवेयक जानेवाले की व्यवहार श्रद्धा तो सही होती है। अभी के बहुत से लोगों में तो वैसी नव तत्त्व की व्यवहार श्रद्धा का भी ठिकाना नहीं है तो फिर
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