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________________ www.vitragvani.com 142] [सम्यग्दर्शन : भाग-3 आत्मा त्रिकाली चैतन्यवस्तु है, वह जीव है और शरीरादि अचेतन वस्तुएँ हैं, वे अजीव हैं । जीवतत्त्व तो त्रिकाल चैतन्यमय है, उसकी अवस्था में अजीव के लक्ष्य से विकार होता है, वह वास्तव में जीवतत्त्व नहीं है, फिर भी उसकी अवस्था में पुण्य-पाप के विकार होने की योग्यता जीव की अपनी है। दया, पूजा इत्यादि भाव, वह शुभराग हैं, पुण्य है; उस विकाररूप होने की योग्यता जीव की अपनी अवस्था में है और उसमें निमित्तरूप अजीव परमाणुओं में भी पुण्यकर्मरूप होने की स्वतन्त्र योग्यता है। पुण्य के असंख्य प्रकार हैं, उसमें जीव अपनी जैसी भूमिका हो, वैसे परिणामरूप परिणमता है। पुण्य के असंख्यात प्रकारों में से किसी समय दया का विकल्प होता है, किसी समय ब्रह्मचर्य का विकल्प होता है, किसी समय दान का अथवा पूजा-भक्ति -स्वाध्याय का विकल्प होता है, किसी समय नव तत्त्व के विचार का सूक्ष्म विकल्प होता है - ऐसी उस-उस भूमिका के परिणाम की ही योग्यता है। जब अपनी एक पर्याय के कारण भी दूसरी पर्याय नहीं होती तो फिर निमित्त से आत्मा का भाव हो - यह बात तो कहाँ रही? पुण्य की तरह हिंसा, कुटिलता इत्यादि पापपरिणाम हों, उनमें भी उस-उस क्षण की, उस जीव की अवस्था में वैसी ही उलटी योग्यता है अर्थात् जीव, विकारी होने योग्य है और पुद्गलकर्म उसमें निमित्त है; इसलिए उसे विकार करानेवाला कहते हैं। जीव और अजीव दोनों पदार्थों की अवस्था अपनी-अपनी स्वतन्त्र योग्यता से ही होती है। कोई एक दूसरे के कर्ता नहीं हैं परन्तु Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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