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________________ www.vitragvani.com 102] [सम्यग्दर्शन : भाग-3 आत्मार्थी का पहला कर्तव्य - (3) निश्चयसम्यग्दर्शन का मार्ग अरे! मैं कौन हूँ और मेरा स्वरूप क्या है ? किस कारण से मुझे यह संसार भ्रमण है और किस कारण से यह भ्रमण मिटेगा? - ऐसी यथार्थ विचारदशा भी जीव को जागृत नहीं हुई है। ऐसी विचारदशा जागृत हो, निर्णय करे और फिर आत्मस्वभाव के सन्मुख होकर प्रतीति करे, तब सम्यग्दर्शन प्रगट होकर भवभ्रमण का अभाव होता है। जिसे आत्मा का कल्याण करना हो, सुखी होना हो, धर्म करना हो अथवा सम्यग्दर्शन प्रगट करना हो, उसे क्या करना चाहिए? - यह बात यहाँ चल रही है। पहले तो जीवादि नव तत्त्वों को भिन्न-भिन्न ज्यों के त्यों जानना चाहिए। इन नव तत्त्वों के विचाररूप भाव, अखण्ड चैतन्य वस्तु में जाने में निमित्त होते हैं। जैसे, दरवाजे के द्वारा घर के अन्दर आया जाता है परन्तु दरवाजा साथ में लेकर अन्दर नहीं आया जाता है; इसी प्रकार अन्दर के चैतन्य घर में आने के लिए नव तत्त्व के विचार करना, वह दरवाजा है अर्थात् निमित्त है परन्तु उन नव तत्त्व के विचार के शुभराग से कहीं अभेदस्वभाव में नहीं पहुँचा जा सकता तथा पहले नव तत्त्व के ज्ञानरूप आँगन में आये बिना भी अभेद में नहीं जाया जा सकता। ___ अहो! अनन्त काल में ऐसा मनुष्यदेह प्राप्त हुआ, उसमें विचार करना चाहिए कि मेरा कल्याण कैसे हो? अनन्त काल में Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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