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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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नहीं, पुण्य में जीव नहीं है। इस प्रकार प्रत्येक तत्त्व का अपना भिन्न-भिन्न लक्षण है। नव तत्त्वों का ऐसा निर्णय करना, वह व्यवहारसम्यक्त्व है।
पुण्यतत्त्व, वह आत्मा नहीं है और पुण्यतत्त्व, वह पाप भी नहीं है। दया, दान, पूजा, भक्ति इत्यादि के भाव, वह पुण्यतत्त्व है, वह कोई पाप नहीं है तो उन दया-पूजादि के भाव को पाप मनवानेवाले को तो नव तत्त्व की व्यवहारश्रद्धा नहीं है। अन्तरस्वभाव का निर्णय करने के बीच में नव तत्त्व की श्रद्धा का विकल्प आये बिना नहीं रहता है। अज्ञानी लोग ऐसा मानते और मनवाते हैं कि धर्म से धन, धन से धर्म होता है। वस्तुतः उन्हें जीव और अजीव तत्त्व की श्रद्धा नहीं है। धर्म का सम्बन्ध धन के साथ नहीं, किन्तु चैतन्य के साथ है। धन तो अजीवतत्त्व है। क्या उस अजीव से जीव को धर्म होता है? धन से धर्म तो नहीं होता, किन्तु धन से पुण्य भी नहीं होता। धन तो जड़तत्त्व है और पुण्य तो जीव का मन्द कषायभाव है, यह दोनों भिन्न हैं। ऐसा होने पर भी जो जीव, पैसे से धर्म मानता है अथवा पैसे से पुण्य या पाप मानता है, उसे व्यवहार श्रद्धा भी सच्ची नहीं है।
श्री आचार्यदेव तो आत्मा की परमार्थ श्रद्धा करवाना चाहते हैं। अभी नव तत्त्व जैसे हैं, वैसे विकल्प से मानें, परन्तु नव के भेदरहित एक परमार्थ आत्मा को श्रद्धा का विषय नहीं बनावे, वहाँ तक सम्यक्त्व नहीं होता है।
जिनमन्दिर में भगवान के समीप हाथ जुड़ते हैं, शरीर नमता है अथवा भाषा बोली जाती है, वह जड़ की किया है; उस जड़ की
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