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________________ www.vitragvani.com 90] [सम्यग्दर्शन : भाग-3 जानता, वह तो एक चैतन्यतत्व का अनुभव किस प्रकार करेगा? वस्तुस्वरूप को समझने-समझाने पर नव तत्त्व का विकल्प आये बिना नहीं रहता। भेद किये बिना समझाना किस प्रकार? परन्तु उस भेद के आश्रय से सम्यग्दर्शन नहीं होता। मैं जीव हूँ, शरीरादि पदार्थ मुझसे भिन्न अजीवतत्त्व हैं। वह अजीव वस्तु उसके द्रव्य-गुण-पर्यायवाली है; इसलिए उसकी पर्याय उससे स्वयं से ही होती है; मुझसे नहीं होती। शरीर की क्रिया जीव के कारण नहीं होती, क्योंकि जीव और अजीव दोनों तत्त्व पृथक् हैं । इस प्रकार वह तत्त्वों को अलग-अलग माने, तब उसने जीव-अजीव इत्यादि तत्त्वों को व्यवहार से माना कहा जाता है। नव तत्त्वों को, नवरूप से अलग-अलग मानने को व्यवहारश्रद्धा कहते हैं परन्तु जीव-अजीव सबको एकमेक मानना अर्थात् जीव, अजीव का कर्ता है - ऐसा मानना तो व्यवहारश्रद्धा भी नहीं है। ___ आत्मा, शरीर की क्रिया कर सकता है - जो ऐसा मानता है, उसे तो जीव-अजीव तत्त्व की व्यवहारश्रद्धा भी नहीं है। नव तत्त्वों को, नव तत्त्वरूप से भिन्न मानना, उस रागसहित श्रद्धा को व्यवहारसम्यक्त्व कहा जाता है और नव तत्त्व के विकल्प से पार होकर अभेद चैतन्यतत्त्व की अन्तर्दृष्टि करना, वह परमार्थ श्रद्धा है। भाई! यह अपूर्व बात है। प्रश्न - परन्तु साहेब! आत्मा की समझ में बुद्धि नहीं लगती है न? उत्तर - देखो भाई! बुद्धि अन्यत्र तो लगती है न? तो दूसरी जगह बुद्धि लगती है और आत्मा में नहीं लगती, इसका कोई Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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