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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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सम्यग्दर्शन तो अपने आत्मस्वभाव के आश्रय से ही होता है; कहीं निमित्त के आश्रय से सम्यग्दर्शन नहीं होता परन्तु ज्ञान का स्व-पर प्रकाशक स्वभाव है, इसलिए सम्यग्दर्शन में ऐसे निमित्त होते हैं, वह भी जानना चाहिए।
निज कारणपरमात्मा के सन्मुख होकर अपूर्व सम्यक्त्व प्रगट करनेवाले जीव को शुद्ध कारणपरमात्मा का स्वरूप बतलानेवाले जिनसूत्र, वह बाह्य निमित्त है और उन जिनसूत्र का आशय समझनेवाले ज्ञानी पुरुष के बिना अकेला जिनसूत्र, सम्यक्त्व का निमित्त नहीं होता - ऐसा बतलाने के लिए यह बात भी साथ ही साथ की है कि जिनसूत्र के ज्ञाता ज्ञानी पुरुष, सम्यक्त्व का अन्तरङ्ग निमित्त है। निमित्तरूप से शास्त्र की अपेक्षा ज्ञानी की मुख्यता बतलाने के लिए शास्त्र को बाह्य निमित्त कहा है और ज्ञानी को अन्तरङ्ग निमित्त कहा है। अन्तरङ्ग निमित्त भी अपने से पर है, इसलिए वह उपचार है।
वीतराग की वाणी, शुद्ध कारणपरमात्मा को उपादेय बतलानेवाली है, वह जिनसूत्र है। वह जिनसूत्र सम्यग्दर्शन का बहिरङ्ग निमित्त है। जो स्वयं अन्तर्मुख होकर शुद्ध कारणपरमात्मा को उपादेयरूप से अङ्गीकार करता है, उसे वह वाणी बाह्य निमित्त है। देखो, जिनसूत्र कैसा होता है? यह बात भी इसमें आ गयी है कि अपने शुद्ध आत्मा को ही जो उपादेय बतलाता हो, अपने शुद्ध कारणपरमात्मा के आश्रय से ही जो लाभ कहता हो, वही जिनसूत्र है और ऐसा जिनसूत्र ही सम्यक्त्व में बाह्य निमित्त है। इसके अतिरिक्त जो शास्त्र पराश्रय भाव से लाभ होना कहता हो, वह
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