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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-2] [71 काल में जिस प्रकार शुद्धात्मा का यथार्थ श्रवण नहीं किया, उस भाव को टालकर अब अलग ही प्रकार से अपूर्वरूप से शुद्धात्मा का यथार्थ श्रवण करके उस शुद्धात्मा को समझ जायेगा। पूर्व में तूने जिसे कभी नहीं जाना, ऐसा शुद्धात्मा मैं तुझे अभी दर्शाता हूँ; इसलिए तू अपूर्व भाव से उसे प्रमाण करके स्वानुभव करना। इस प्रकार इस समयसार के सुननेवाले और कहनेवाले दोनों को शुद्धात्मा के प्रति अपार उत्साह है। मैं शुद्ध आत्मा बतलाता हूँ और तू उसकी हाँ ही करके तेरे स्वानुभव से प्रमाण करना' - ऐसा कहकर फिर तुरन्त छठवीं गाथा में श्री आचार्यदेव, आत्मा का एकत्व-विभक्त ज्ञायकस्वभाव दर्शाते हैं। ( श्री समयसार गाथा-५ पर पूज्य गुरुदेवश्री के प्रवचन में से) तभी धर्म की शुरूआत होती है। प्रत्येक आत्मा प्रभु है, पूर्ण सामर्थ्यवान् है; अवस्था में अपूर्णता भले ही हो, परन्तु सदा अपूर्णता ही रहा करे और पूर्णता प्रगट ही नहीं हो सके - ऐसा उसका स्वभाव नहीं है। पर्याय से भी परिपूर्ण होने का प्रत्येक आत्मा का स्वरूप है; प्रत्येक आत्मा निर्लेप, निर्दोष परिपूर्ण परमात्मा है - ऐसा भगवान की वाणी का पुकार है। अपने ऐसे पूर्ण आत्मा को पहचानकर, उसके अनुभवसहित सम्यग्दर्शन होता है और तभी धर्म की शुरूआत होती है। इसके अतिरिक्त धर्म का प्रारम्भ नहीं होता। (पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी) Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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