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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-2] [69 आत्मस्वभाव की ओर ढलकर शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है, उस ज्ञान की ही महिमा है। इसलिए आचार्यदेव कहते हैं कि हे जीव ! तू शुद्ध आत्मा को ही प्रमाण करना; हमारी वाणी के लक्ष्य से नहीं परन्तु तेरे स्वानुभव से तू प्रमाण करना; वाणी के लक्ष्य से तो विकल्प होगा, उसकी मुख्यता नहीं करना, दूसरे किसी जानकारी की मुख्यता नहीं करना परन्तु शुद्ध आत्मा की मुख्यता करके उसका स्वानुभव करना। कोई कहे कि यह समयसार सुनकर क्या करना? तो आचार्य कुन्दकुन्द प्रभु कहते हैं कि स्वानुभव से शुद्ध आत्मा को प्रमाण करना। आचार्यदेव कहते हैं कि मेरे आत्मा का जितना निज वैभव है, उस सर्व से मैं इस एकत्व-विभक्त आत्मा को दर्शाऊँगा। मैं जिस प्रकार दर्शाऊँ, उसी प्रकार श्रोता को स्वयमेव अपने अनुभव प्रत्यक्ष से परीक्षा करके प्रमाण करना। बाहर की जानकारी के बोल में कहीं चूक जाऊँ तो उसे ग्रहण करने में सावधान नहीं होना; सावधानी तो शुद्ध आत्मा की ही रखना। हे जीव! यदि तू एकत्व-विभक्त आत्मा के अतिरिक्त मुझमें दूसरा लक्ष्य करके अटकेगा तो तुझमें ही दोष की उत्पत्ति होगी। पर की ओर लक्ष्य करके अटका, वही दोष है। प्रथम तो तू तुझमें दोष करके अटकेगा, तब दूसरे के दोष की ओर तेरा लक्ष्य जायेगा न? परन्तु तू एकत्व-विभक्त शुद्धात्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं लक्ष्य करके अटकेगा नहीं तो दूसरे में भी तुझे दोष देखने का विकल्प खड़ा नहीं होगा। मैं शुद्धात्मा कहता हूँ और तू उसकी हाँ ही करना। मैं जो बतलाना नहीं चाहता, उस पर तू भी वजन मत Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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