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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
है और आत्मा को उपरोक्तानुसार जाने तो अन्तर में अपने आत्मा का ही परमात्मारूप से दर्शन होता है। संसार में-गृहस्थपने में भी ऐसा आत्मदर्शन हो सकता है। इसका नाम अभेदभक्ति है।
भरत महाराजा चक्रवर्ती हैं, ऋषभदेव भगवान के पुत्र हैं, इसी भव से मोक्ष जानेवाले हैं, छह खण्ड के राज्य में रहे होने पर भी कभी-कभी अन्तर में आत्मा का अनुभव कर लेते हैं। वे भरतजी अभी अपनी रानियों को आत्मा के अनुभव का उपाय समझा रहे हैं। ___ आत्मा ज्ञानमय है। पर का कुछ करने का ज्ञान का स्वभाव नहीं है और राग-द्वेष करने का भी ज्ञान का स्वभाव नहीं है। ऐसे स्वभाव को पहचाने तो अन्तर में आत्मा का दर्शन हो। देखो! स्त्री
को भी आत्मदर्शन होता है। ___एक मूर्ख दरबार ऐसा था कि किसी ने उससे पूछा कि दरबार! तुम्हारे रानियाँ कितनी? दरबार ने कहा - कामदार को पूछो, मुझे पता नहीं। इसी प्रकार अज्ञानी मूर्ख जीव कहते हैं कि आत्मा का स्वरूप कैसा है - उसका अपने को पता नहीं, शास्त्र को पूछो। यहाँ कहते हैं कि आत्मा, रागरहित ज्ञानमय है - ऐसा जानकर अन्तर में देखे तो आत्मा का अनुभव हो और अपने अनुभव का अपने को पता पड़ता है। जिस प्रकार स्फटिक की शुद्ध प्रतिमा पर धूल होने पर भी वह दिखती है; उसी प्रकार चैतन्यमूर्ति आत्मा स्फटिकवत् निर्मल है, ऊपर कर्म की धूल होने पर भी वह दिखता है। आत्मा जाननेरूप स्वभाववाला चैतन्य की प्रतिमा है और कर्म तथा शरीर की धूल से वह पृथक् रहा हुआ है। ऐसा जानकर यदि अनुभव करे तो स्फटिक प्रतिमा की तरह शुद्ध आत्मा का अनुभव होता है।
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