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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-2] [57 का सागर है, उसकी श्रद्धा-ज्ञान में चित्त नहीं लगता, तो आत्मा की अभेदभक्ति कैसे हो? उसका उपाय कहो। __ भरतजी उसका उत्तर देते हैं – जैसे तुम वीतरागी चैतन्यमूर्ति भगवान के प्रतिबिम्ब को सन्मुख रखकर, उसकी भक्ति करती हो; उसी प्रकार आत्मा को भी तनुवातवलय में विराजमान सिद्धसमान चिन्तवन करोगी तो अभेद आत्मा की भक्ति में चित्त लगेगा। वातवलय में जैसे सिद्ध प्रभु बिराजमान हैं, वैसा ही यह आत्मा अभी शरीर-प्रमाण बिराजमान है। __ भरत और उनकी रानियों को राग है और गृहस्थपने में हैं परन्तु अन्तर में रटन तो यही है, इसलिए धर्मपूर्वक अध्यात्म की चर्चा करते हैं। आत्मा की भक्ति से मुक्ति होती है; उस भक्ति का वर्णन चलता है। शरीर में रहा होने पर भी आत्मा, शरीरादि से भिन्न है - ऐसा समझे तो शरीरादि पर में एकत्वबुद्धि छूटकर आत्मा के श्रद्धा-ज्ञान हो, वह अभेदभक्ति है। भेदभक्ति का वर्णन संक्षिप्त कर डाला और अभेदभक्ति का वर्णन विशेष करते हैं । भेदभक्ति को तो जगत जानता है परन्तु आत्मा की अभेदभक्ति को नहीं जानता। धर्म, आत्मा से करना है तो आत्मा कैसा है ? यह जाने बिना धर्म नहीं होता। आत्मा ज्ञानमूर्ति सिद्ध जैसा है; शरीर से भिन्न है; अरूपी पुरुषाकार और चिन्मय है; चिन्मय अर्थात् ज्ञानमय है - ऐसे आत्मा को जानकर उसमें स्थिरता करना, वह अभेदभक्ति है। जिनबिम्ब इत्यादि की भक्ति, वह भेदभक्ति है, उसमें शुभराग Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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