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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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से जाना जा सकता है किन्तु महान् विद्वान् भी वाणी से उसका सम्पूर्ण वर्णन नहीं कर सकते। वह ज्ञान में आता है किन्तु वाणी में नहीं आता। जिस प्रकार घी खाने पर उसके स्वाद का ज्ञान होता है परन्तु वाणी में वह सम्पूर्ण नहीं कहा जा सकता; इसी प्रकार आत्मा का स्वरूप ज्ञान में ज्ञात होता है परन्तु वाणी में नहीं कहा जा सकता। जब
आत्मा को जाननेवाला ज्ञानी भी उसे वाणी से सम्पूर्णरूप से कहने में समर्थ नहीं है, तब अज्ञानी तो उसे कह ही कैसे सकता है?
यह मनुष्य देह, दुर्लभ है और इसमें भी आत्मा का भान करना तो महादुर्लभ है। बहुत से जीव, मनुष्यपना प्राप्त करके भी आत्मा को नहीं जानते और तीव्र लोलुपता से कौए-कीड़े-मकोड़े जैसा जीवन व्यतीत करते हैं। यहाँ कहते हैं कि हे भाई! मनुष्यपना पाकर तू अपने आत्मा को जान! आत्मस्वभाव ऐसा है कि ज्ञान से अनुभव किया जा सकता है परन्तु वाणी में नहीं आ सकता। श्रीमद् राजचन्द्र कहते हैं कि :
जो पद झलके श्री जिनवर के ज्ञान में, कह न सके पर वह भी श्री भगवान जब। उस स्वरूप को अन्य वचन से क्या कहूँ,
अनुभवगोचर मात्र रहा वह ज्ञान जब॥ ऐसे आत्मा का भान अभी विदेहक्षेत्र में आठ-आठ वर्ष के राजकुमार भी करते हैं। मैं ज्ञानानन्दस्वरूप हूँ - ऐसा अनुभव आठ वर्ष के बालक भी कर सकते हैं। चैतन्य की महिमा का विस्तार इतना अधिक है कि वाणी से पार नहीं पड़ता, परन्तु ज्ञान के अनुभव से ही पार पड़ता है। घी का वर्णन लिखकर चाहे जितनी
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