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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
और तत्त्व समझ में आये परन्तु जिसे तत्त्व का श्रवण, ग्रहण और धारणा का ही अभाव है, उसे तो सत्स्वभाव की रुचि नहीं होती
और रुचि के बिना उसका परिणमन कहाँ से होगा? रुचि के बिना सत्य समझ में नहीं आता और धर्म नहीं होता।
भगवान ने कहा है अथवा ज्ञानी कहते हैं, इसलिए यह बात सत्य है - ऐसे पर के लक्ष्य से सत् को माने तो वह शुभभाव है, वह भी सच्चा ज्ञान नहीं है। पहले देव-गुरु के लक्ष्य से वैसा राग होता है, परन्तु देव-गुरु का लक्ष्य छोड़कर, अपने अन्तरस्वभाव में झुककर, रागरहित निर्णय करे कि मेरा आत्मस्वभाव ही ऐसा है तो उसके आत्मा में सच्चा ज्ञान हुआ है। उससे सत्समागम या श्रवण इत्यादि का निषेध नहीं है, सत्समागम से सत्धर्म का श्रवण किये बिना कोई जीव आगे नहीं बढ़ सकता परन्तु उन श्रवणादि के पश्चात् आगे बढ़ने के लिये यह बात है। मात्र श्रवण करने में धर्म न मानकर ग्रहण, धारणा और निर्णय करके आत्मा में रुचि से परिणमित करना चाहिए।
(भेदविज्ञानसार में से)
अर्ध श्लोक में मुक्ति का उपदेश
चिद्रूपः केवलः शुद्धः आनंदात्मेत्यहं स्मरे। मुक्त्यै सर्वज्ञोपदेशः श्लोकार्थेन निरूपितः ॥२२॥ मैं चिद्रूप केवल, शुद्ध, आनन्दस्वरूप हूँ - ऐसा स्मरण करता हूँ, मुक्ति के लिये सर्वज्ञ का उपदेश इस अर्ध श्लोक से निरुपित है।
(तत्त्वज्ञानतरंगिणी, अध्याय ७)
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