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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
सम्यग्दर्शन की दुर्लभता और अपूर्वता
अनन्त-अनन्त काल में मनुष्यपना मिलना कठिन है। मनुष्यपने में ऐसी सत्यधर्म की बात कभी-कभी ही सुनने को मिलती है। अभी तो लोगों को यह बात एकदम नयी है। ऐसी सत्य बात सुनने को मिलना महादुर्लभ है, सुनने के पश्चात् बुद्धि में उसका ग्रहण होना दुर्लभ है, 'यह क्या स्वभाव कहना चाहते हैं' - ऐसा ज्ञान में पकड़ना दुर्लभ है; ग्रहण होने के पश्चात् उसकी धारणा होना दुर्लभ है। सुनते समय अच्छा लगे और बाहर निकले तो सब भूल जाये तो उसे आत्मा में लाभ कहाँ से होगा? श्रवण, ग्रहण और धारणा करने के पश्चात् एकान्त में स्वयं अपने अन्तर में मन्थन करके सत्य का निर्णय करे, वह दुर्लभ है परन्तु सत्य बात सुनी ही न हो, वह ग्रहण क्या करे और धारणा किसकी करे तथा अन्तर में क्या विचार करे? अन्तर में यथार्थ निर्णय करके, उसे रुचि में परिणमित करके, सम्यग्दर्शन प्रगट करना महान दुर्लभ / अपूर्व है। इस सम्यग्दर्शन के बिना किसी भी प्रकार से जीव का कल्याण नहीं होता है।
देखो, इसमें शुरुआत का उपाय कहा है। पहले तो संसार की लोलुपता घटाकर तत्त्व श्रवण करने के लिये निवृत्ति लेनी चाहिए। श्रवण, ग्रहण, धारणा, निर्णय और रुचि में परिणमन - इतने बोल आये हैं । यह प्रत्येक एक से एक दुर्लभ है। श्रवण करके विचार करे कि मैंने आज क्या श्रवण किया? नया क्या समझ में आया? ऐसा अन्तर में प्रयत्न करके समझे तो आत्मा की रुचि जागृत हो
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