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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
चाहिए, मेरा सुख मुझमें है, मुझे तो अब आत्मा समझना है - जो ऐसी भावना करता है, वह महा बादशाह है। भले गृहस्थाश्रम में हो, तथापि अन्तर में आत्मा का भान करता है, वह धर्मात्मा है और उसे जन्म-मरण का अन्त आ जायेगा।
जिस प्रकार पर्वत पर बिजली गिरे और दो टुकड़े हो जायें, फिर वे वापस जुड़ते नहीं हैं; उसी प्रकार जो जीव एक सैकेण्ड भी
आत्मा की समझ करता है, उसका संसार टूट जाता है। जिस प्रकार किसी पर के घर लक्ष्मी का ढेर देखकर यह लक्ष्मी मेरी' - ऐसा चतुर लोग नहीं मानते; उसी प्रकार धर्मी जीव इन शरीरादि को या पुण्य-पाप के भावों को अपना स्वरूप नहीं मानते।
- ऐसे आत्मा को जाने बिना किसी प्रकार कल्याण नहीं होगा, जिसने आत्मा को नहीं जाना और पैसे का गुलाम हो रहा है, वह बड़ा भिखारी है। ___ जैनदर्शन में सात तत्त्व हैं – जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष।
जो जानता है, वह जीव है। शरीर इत्यादि अजीव हैं। उनमें ज्ञान नहीं है। मिथ्यात्व, पुण्य-पाप इत्यादि आस्त्रव हैं। पुण्य-पाप इत्यादि विकार में अटकना, वह बन्धन है।
उन पुण्य-पापरहित चैतन्यमूर्ति आत्मा की पहचान करके उसमें स्थिर होना, वह संवर-निर्जरारूप धर्म है; और
सम्पूर्ण शुद्धदशा प्रगट हो जाना, वह मोक्ष है।
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