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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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से कर्मबन्ध होता है; इस प्रकार राग-द्वेष और कर्मबन्ध की परम्परा अनादि से चली आ रही होने पर भी, वह स्वभावभूत नहीं, किन्तु विभावरूप उपाधि है। धर्मी जीव अपने में उस उपाधि का अवलोकन करके अर्थात् अपनी पर्याय में वे विकारीभाव हैं - ऐसा जानकर, उसी काल में अपने निरुपाधिक शुद्धस्वभाव का निश्चय भी प्रगट वर्तता होने से, उस स्वभाव के सन्मुख झुकता जाता है और राग -द्वेष की परम्परा को मिटाता जाता है। राग-द्वेष की परम्परा मिटने से कर्मबन्धन भी छूटता जाता है और इस क्रम से वह जीव मुक्ति प्राप्त करता है। ___आचार्यदेव, परमाणु का दृष्टान्त देकर समझाते हैं कि स्कन्ध में रहा हुआ परमाणु जब जघन्य स्निग्धतारूप परिणमित होने के सन्मुख होता है, तब स्कन्ध के साथ के बन्धन से वह पृथक् हो जाता है। इसी प्रकार शुद्धस्वभाव के सन्मुख झुके हुए जीव को रागादि स्निग्धभाव अत्यन्त क्षीण होते जाते होने से, वह पूर्व बन्धन से छूटता जाता है और नया बन्धन नहीं होता; इसलिए उबलते हुए पानी के समान अशान्त दु:खों से वह परिमुक्त होता है।
देखो, आत्मा के अर्थीरूप से पञ्चास्तिकाय को जानने का फल ! जो जीव वास्तव में आत्मा का अर्थी हुआ, उसे आत्मा की प्राप्ति हुए बिना रहती ही नहीं। पञ्चास्तिकाय को जानकर उसमें से अपने शुद्ध आत्मा को पृथक् करके अर्थात् निर्णय में लेकर, श्रद्धा-ज्ञान करके, उसमें लीन होना ही मोक्ष का उपाय है।
आचार्य महाराज कहते हैं कि कालसहित पञ्चास्तिकाय का प्रतिपादन करनेवाला यह 'पञ्चास्तिकाय' जिनप्रवचन का सार है, क्योंकि जिनप्रवचन में छह द्रव्यों का ही सब विस्तार है। छह द्रव्य
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