________________
www.vitragvani.com
172]
[सम्यग्दर्शन : भाग-2
आचार्यदेव कहते हैं कि 'हे भव्य! हे जिज्ञासु ! प्रथम तो तू आत्मा का अर्थी होकर, सर्वज्ञ भगवान द्वारा कथित छह द्रव्यों को जानकर यह निर्णय कर कि मेरा आत्मा अत्यन्त विशुद्ध चैतन्यस्वरूप है। आत्मा का प्रेमी होकर यह निर्णय कर कि जगत् के पदार्थों में शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा ही मैं हूँ। अकेले श्रवण अथवा विकल्प से नहीं, अपितु अन्तर्लक्ष्य से आत्मा को स्पर्श करके अपूर्व निर्णय कर। आत्मस्वरूप का ऐसा निर्णय ही धर्म की ठोस भूमिका है। ____ मैं अत्यन्त विशुद्ध चैतन्यस्वभावी हूँ, इस प्रकार निजतत्त्व का निश्चय करने के बाद वह मोक्षार्थी जीव क्या करता है? जिस स्वभाव का निश्चय किया है, उसी का अनुसरण करता है और उस काल में रागादिभाव वर्तते होने पर भी उनका अनुसरण नहीं करता, अपितु उन्हें छोड़ता है। जिसने अपने शुद्धस्वभाव का निश्चय किया है - ऐसा धर्मी जानता है कि मुझमें जो यह रागद्वेषादि विकार दृष्टिगोचर होता है, वह मेरा स्वभावभूत नहीं है, अपितु मुझमें आरोपित है। जिस क्षण राग-द्वेष वर्तते हैं, उसी क्षण विवेक -ज्योति के कारण धर्मी जीव जानता है कि मेरा स्वभाव तो शुद्ध चैतन्यमात्र है; यह राग-द्वेष तो उपाधिरूप है। यह राग-द्वेष की परम्परा मेरे स्वभाव के आश्रय से नहीं हुई है किन्तु कर्मबन्धन के आश्रय से हुई है। अब, मैं अपने स्वभाव के आश्रय से निर्मलपर्याय की परम्परा प्रगट करके इस राग-द्वेष की परम्परा का अभाव कर देता हूँ। इस प्रकार अपने स्वभाव का निश्चय करके, उसका ही अनुसरण करनेवाला जीव समस्त दुःख से परिमुक्त होता है।
अपने स्वभाव को भूलकर कर्म की ओर के झुकाव से जीव को अनादि से राग-द्वेष की परम्परा चल रही है और उन राग-द्वेष
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.