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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
पहले अफर निर्णय होना चाहिए कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ और उसी का मुझे अवलम्बन करने योग्य है । दूसरा कम-ज्यादा आवे, उससे कुछ नहीं होता। कदाचित् कम आवे तो उसका खेद नहीं और अधिक आवे तो उसका अभिमान नहीं, क्योंकि जिसे आत्मा का स्वभाव आता है, उसे सब आता है और उसने भगवान के समस्त प्रवचन का सार जान लिया है।
आत्मा के अनुभव के लिए पहले ठोस भूमिका चाहिए। वह ठोस भूमिका कौन सी है ? मैं ज्ञानस्वरूप हूँ - ऐसा निर्णय ही ठोस भूमिका है। जैसे, बैठे हुए पक्षी को गगन में उड़ने के लिए नीचे ठोस भूमिका चाहिए; उसी तरह चैतन्य के चारित्र में गगन-विहार करने के लिए पहले निर्णयरूप ठोस भूमिका चाहिए। आत्मार्थी होकर अनन्त काल में नहीं किया हुआ - ऐसा अपूर्व प्रकार से, अपूर्व पुरुषार्थ से आत्मा का अपूर्व निर्णय करना ही प्रथम भूमिका है - यही धर्मनगरी में प्रविष्ट होने का दरवाजा है। इस निर्णय में राग का उत्साह नहीं, अपितु चैतन्य का उत्साह है। वह जीव, राग के भरोसे रुकता नहीं है किन्तु चैतन्यस्वभाव के भरोसे अन्तर में आगे बढ़ता जाता है और राग-द्वेष का अभाव करता जाता है।
[पञ्चास्तिकाय, गाथा 103 पर पूज्य गुरुदेवश्री का प्रवचन ]
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