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________________ www.vitragvani.com 162] [सम्यग्दर्शन : भाग-2 तक सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि है। यह जीव थोड़े ही काल में सम्यक्त्व को प्राप्त होगा; इसी भव में या अन्य पर्याय में सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा।' आत्मार्थी जीव उल्लसित वीर्यवान है, उसके परिणाम उल्लासरूप होते हैं, अपने स्वभाव को साधने के लिए उसका वीर्य उत्साहित होता है। श्रीमद् राजचन्द्र कहते हैं कि 'उल्लसित वीर्यवान, परम तत्त्व की उपासना का मुख्य अधिकारी है।' आत्मार्थी जीव अपनी आत्मा के हित के लिए उल्लासपूर्वक श्रवण-मनन करता है। कुलप्रवृत्तिपूर्वक अथवा सुनने का सहज योग बन जाए तो सुन ले, किन्तु समझने का प्रयत्न नहीं करे तो उसे आत्मा की गरज नहीं है। इसलिए यहाँ आत्मा का अर्थी होकर शास्त्र जानने को कहा गया है। कहा भी है कि - ___ काम एक आत्मार्थ का, दूजा नहीं मन रोग जिसके अन्तरङ्ग में एक आत्मार्थ साधने का ही लक्ष्य है। मेरे अनादि के भवरोग के दुःख का अभाव कैसे हो? इसके अतिरिक्त अन्य कोई रोग अर्थात् मानादि की भावना जिसके अन्तर में नहीं है; जो शिष्य इस प्रकार आत्मा का अर्थी होकर पञ्चास्तिकायसंग्रह को जानता है, वह सर्व दुःख से परिमुक्त होता है। जिस प्रकार कोई मनुष्य बहुत दिनों से क्षुधातुर हो और क्षुधा मिटाने के लिए याचक बनकर, मान छोड़कर भोजन माँगता है, वह अपने लिए माँगता है; दूसरों को देने के लिये नहीं। मेरी भूख का दु:ख मिटे, ऐसा कोई भोजन मुझे दो – इस प्रकार याचक होकर माँगता है। ऐसे क्षुधातुर व्यक्ति को भोजन प्राप्त हो तो उसे Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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