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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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विकल्प के अभावरूप परिणमन
अर्थात् निर्विकल्प शुद्धात्मानुभव कब? बहुत से जीव, विकल्प का अभाव करना चाहते हैं और स्थूल विकल्प कम होने पर ऐसा मानते हैं कि विकल्प का अभाव हुआ, किन्तु वस्तुतः विकल्प का अभाव करने पर जिसका लक्ष्य है, उसे विकल्प का अभाव नहीं होता, किन्तु जिसमें विकल्प का अभाव ही है – ऐसे शुद्ध चैतन्य को लक्ष्य में लेकर एकाग्र होने पर विकल्प का अभाव हो जाता है। मैं इस विकल्प का निषेध करूँ - ऐसे विकल्प का निषेध करने की ओर जिसका लक्ष्य है, उसका लक्ष्य शुद्ध आत्मा की ओर उन्मुख नहीं है, किन्तु विकल्प की ओर उन्मुख है; इसलिए उसमें तो विकल्प की उत्पत्ति ही होती है। शुद्ध आत्मद्रव्य की ओर ढलना ही विकल्प के अभाव की पद्धति है। उपयोग का झुकाव अन्तर्मुख स्वभावसन्मुख ढलने पर विकल्प की ओर का झुकाव छूट जाता है।
'विकल्प का निषेध करूँ' – ऐसे लक्ष्य से विकल्प का निषेध नहीं होता परन्तु विकल्प की उत्पत्ति होती है, क्योंकि यह विकल्प है और इसका निषेध करूँ' – ऐसा लक्ष्य किया, वहाँ तो विकल्प के अस्तित्व पर जोर गया परन्तु विकल्प के अभावरूप स्वभाव तो दृष्टि में नहीं आया; इसलिए वहाँ मात्र विकल्प का उत्थान ही होता है।
'यह विकल्प है और इसका निषेध करूँ' – ऐसे विकल्प के अस्तित्व के सन्मुख देखने से उसका निषेध नहीं होता परन्तु 'मैं
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