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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
महामार्ग है, यह आत्मा के परमपद प्रगट होने का महामार्ग है।
अब, निमित्तपने की बात करते हैं - 'और इन सबका कारण किसी विद्यमान सत्पुरुष की प्राप्ति और उनके प्रति अविचल श्रद्धा है। अधिक क्या लिखना? त्रिकाल यह एक ही मार्ग है।' इस प्रकार वजनपूर्वक कहते हैं कि भाई ! तुझे अपने स्वरूप की ही भ्रान्ति है, उस भ्रान्ति का अभाव किये बिना छुटकारा नहीं है और उस भ्रान्ति का अभाव करने के लिए ज्ञानियों ने जो सम्मत किया है, वही सम्मत करना - यही मार्ग है। यह मार्ग सूझने पर ही सर्व सन्तों के हृदय को पाया जा सकता है तथा यहाँ विद्यमान पुरुष की प्राप्ति होने की बात कही गयी है; पूर्व में हो गये सत्पुरुष नहीं, परन्तु अपने को साक्षात् विद्यमान सत्पुरुष की प्राप्ति हो और उनके वचन का सीधा श्रवण करते हुए, उनके प्रति अविचल श्रद्धा जागृत हो तो जीव का हित होता है। यह समझे बिना सत्पुरुष को मानने की बात नहीं है परन्तु सत्पुरुष को पहचानकर जैसा वे कहते हैं, वैसे निरालम्बी निज आत्मस्वभाव की पहचान करनेवाले ने सन्तों के द्वारा माना हुआ, माना कहलाता है और यही जिनवाणी का मार्ग है। । अन्त में स्वयं को शामिल करते हुए कहते हैं कि सर्व प्रदेशों से मुझे तो यही सम्मत है!' आत्मा के असंख्य प्रदेश में मुझे तो यही मान्य है। .
[श्रीमद् राजचन्द्र के विशिष्ट वचनामृतों पर पूज्य गुरुदेवश्री के प्रवचन]
ॐ
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