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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
शुभ अथवा अशुभरूप किसी भी पराश्रितभाव से आत्मा को धर्म होता है - ऐसी मान्यता ज्ञानियों को सम्मत नहीं है। जिस भाव से आत्मा को हानि होती है, वह एक भी भाव, ज्ञानी को सम्मत नहीं होता। ज्ञानी को आत्मा का विकाररहित स्वभाव ही सम्मत है।
देखो, एक ज्ञानी एक मार्ग बतलाये, दूसरा ज्ञानी दूसरा मार्ग बतलाये – ऐसा कभी नहीं होता। सभी सत्पुरुषों का एक ही मार्ग है। वह यह कि आत्मस्वभाव को पहचानकर, उसका आश्रय करना ही मुक्ति का पन्थ है और इसी मार्ग में समस्त ज्ञानियों की सम्मति है। इस प्रकार पहचानकर ज्ञानियों के द्वारा सम्मत किया हुआ, सर्व सम्मत करना चाहिए।
ज्ञानी के समीप सत् का श्रवण करते हुए जितना अपने को रुचे उतना मान ले और दूसरी बात नहीं रुचे तो उस जीव ने ज्ञानियों के द्वारा कहा हुआ सर्वसम्मत नहीं किया है किन्तु अपने स्वच्छन्द का पोषण किया है। देव-गुरु-शास्त्र के आश्रय से होनेवाले पुण्यभाव का आश्रय करना धर्मी को मान्य नहीं है, अपितु उसका आश्रय छोड़ना ज्ञानियों को मान्य है। ____ ज्ञानियों द्वारा मान्य किया हुआ सर्व मान्य करना। उसमें यदि कहीं अपनी कल्पना का स्वच्छन्द रखा तो उसने ज्ञानियों को पहचाना ही नहीं और न उनका कहना माना है। जीव ने अभी तक अपनी भ्रान्ति से ही अर्थात् अपनी दृष्टि से ही ज्ञानी को पहचाना है। यदि ज्ञानी को ज्ञानी के प्रकार से पहचाने तो उसे भेदज्ञान और मुक्ति हुए नहीं रह सकती है। ज्ञानी की पहचान करने में पर की महिमा नहीं, किन्तु अपने आत्मा की महिमा है। पहले तो अनन्त
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