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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 2
आत्मस्वभाव में अभेददृष्टि ही ज्ञानियों को सम्मत
श्रीमद् राजचन्द्रजी एक पत्र में लिखते हैं कि ज्ञानियों ने सम्मत किया हुआ सब सम्मत करना । ज्ञानियों को क्या सम्मत है ? आत्मस्वभाव में अभेददृष्टि ही सर्व ज्ञानियों को सम्मत है । इसके अतिरिक्त किसी राग से धर्म होता है अथवा शरीर की क्रिया आत्मा करता है, यह बात किसी ज्ञानी को सम्मत नहीं है ।
'अनन्त काल से अपने को, अपने सम्बन्ध में ही भ्रान्ति रह गयी है।' यह श्रीमद् का तेईसवें वर्ष का लेख है। आत्मा अनन्त काल से है और इस शरीर का सम्बन्ध नया हुआ है किन्तु आत्मा नया नहीं होता । आत्मा स्वयं कौन है ? - इस बात का उसे अनन्त काल से पता नहीं है। मैं कौन हूँ और मेरा स्वरूप क्या है ? - इस सम्बन्ध में ही भ्रान्ति रह गयी है । मानो मेरा सुख बाहर में हो - ऐसा यह मानता है; इसलिए अपने विषय में ही भ्रान्ति है । देखो ! देव-शास्त्र-गुरु के विषय में भ्रान्ति रह गयी है - ऐसा नहीं कहा है, क्योंकि सच्चे देव - शास्त्र - गुरु को माना है परन्तु अपने आत्मा के विषय में रही हुई भ्रान्ति का अभाव नहीं किया है। देखो, पर के विषय में भ्रान्ति रह गयी है - ऐसा भी नहीं कहा गया है परन्तु स्व कौन है ? इस विषय में भ्रान्ति रह गयी है ।
यह जीव, निज आत्मा को भूलकर पर से लाभ मान रहा है; इसलिए उपादानस्वभाव में भ्रान्ति रह गयी है किन्तु निमित्त में भूल रह गयी है - ऐसा नहीं है । दूसरे प्रकार से कहें तो व्यवहार के
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