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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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श्रीमद् राजचन्द्र का एक पत्र
अनन्त काल से स्वयं को स्वयं के विषय में ही भ्रान्ति रह गयी है; यह एक अवाच्य-अद्भुत विचारणीय स्थल है। जहाँ मति की गति नहीं, वहाँ वचन की गति कहाँ से हो?
निरन्तर उदासीनता के क्रम का सेवन करना; सत्पुरुष की भक्ति के प्रति लीन होना, सत्पुरुषों का चरित्रस्मरण करना, सत्पुरुषों के लक्षणों का चिन्तन करना, सत्पुरुषों की मुखाकृति का हृदय से अवलोकन करना, उनकी मन-वचन-काया की प्रत्येक चेष्ठा के अद्भुत रहस्य बारम्बार निधिध्यासन करना; उनके द्वारा सम्मत किया सर्वसम्मत करना। ____ यह ज्ञानियों के हृदय में रखा हुआ, निर्वाण के अर्थ मान्य रखने योग्य, श्रद्धा करने योग्य, बारम्बार चिन्तवन करने योग्य, प्रतिक्षणप्रतिसमय लीन होने योग्य परम रहस्य है और यही सर्व शास्त्र का, सर्व सन्तों के हृदय का, ईश्वर के घर का मर्म प्राप्त करने का महामार्ग है और इस सबका कारण कोई विद्यमान सत्पुरुष की प्राप्ति तथा उनके प्रति अविचल श्रद्धा है। अधिक क्या लिखना? आज, चाहे तो इससे देरी से अथवा पहले यही सूझे, यही प्राप्त होने पर छुटकारा है, सर्व प्रदेश में मुझे तो यही सम्मत।
(आवृत्ति दूसरी, पत्र १००वाँ पृष्ठ १६९)
श्रीमद् राजचन्द्रजी के इस पत्र पर पूज्य गुरुदेवश्री ___ का विवेचन आगामी प्रकरण में है।
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