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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-2] [131 मिथ्यात्व है; भेद का विकल्प उठे, वह भी राग है; भेद का भी लक्ष्य छोड़कर, अभेद ज्ञान-आनन्दस्वभाव की भक्ति करना, अर्थात् उसका आश्रय करके उसमें तन्मय होना, वह निश्चयभक्ति है। जहाँ ऐसी भक्ति होती है, वहाँ देव-गुरु की भक्ति के शुभराग को व्यवहारभक्ति कहा जाता है। सर्वज्ञ के मार्ग में जो शुद्धरत्नत्रय को भजे, उसे भक्त कहा है। जो जीव, रत्नत्रयस्वरूप परिणमित हुआ, वह रत्नत्रय का भक्त है। शुद्ध आत्मा की श्रद्धा करके, रागरहित स्वसंवेदन से अपने आत्मा को ही स्वज्ञेय बनाकर जो जानता है, उसे रत्नत्रय की भक्ति है। गृहस्थी हो या मुनि हो – जिसे अपने शुद्ध आत्मा के श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र की भक्ति है, वही सच्चा भक्त है। वह भक्ति कैसी है ? भव की छेदक है। इसके अतिरिक्त आत्मा के भान बिना साक्षात् भगवान के समीप जाकर भक्ति करे और उससे कल्याण हो जायेगा - ऐसा माने, उसे भक्त नहीं कहते और उसकी भक्ति से भव का छेद नहीं होता। चिदानन्द भगवान आत्मा में भव नहीं - उसकी भक्ति है, वह भव छेदक है। चैतन्यस्वभाव को चूककर, विकार जितना अपने को मानना, वह मिथ्यात्व का भजन है, और वह भव का कारण है। मैं तो त्रिकाल ज्ञान, आनन्दस्वरूप हूँ; एक समय का क्षणिक विकार, वह मैं नहीं - ऐसी श्रद्धा, ज्ञान, रमणतारूप निज शुद्धात्मा की जो भक्ति है, वह भव का नाश करनेवाली है। अन्तर में ऐसी शुद्धरत्नत्रयदशा प्रगट हो, तब मुनिपना होता है। मुनिपना, परमेष्ठीपद है। जो आत्मा के परम आनन्द में स्थिर हुए हैं, Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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