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________________ www.vitragvani.com 130] [सम्यग्दर्शन : भाग-2 बिराजमान हैं, वहाँ से मनुष्य होकर केवलज्ञान प्रगट करके मुक्त हो जायेंगे। वे कहते हैं कि अहो! श्रमण हो या श्रावक हों, उसे शुभ या अशुभराग के समय द्रव्यदृष्टि की मुख्यता हटती नहीं है, प्रतिक्षण स्वभाव की दृष्टि से उन्हें रत्नत्रय की भक्ति वर्तती है, इसलिए वे भक्त हैं, भक्त हैं। धर्मी श्रावक को भी निरन्तर रत्नत्रय की भक्ति होती है; राजपाट हो, गृहस्थाश्रम हो, स्त्रियाँ हों, तथापि अन्दर में उस धर्मी को भान है कि मैं तो चिदानन्दमूर्ति हूँ। शुद्ध चिदानन्द स्वरूप की मुख्यता उसकी दृष्टि में से एक समय भी छूटती नहीं है - ऐसा धर्मी जीव, रत्नत्रय का भक्त है। दृष्टि में शुद्धद्रव्य की मुख्यता छूटकर एक क्षण भी पर्याय की या निमित्त की मुख्यता हो जाये तो मिथ्यात्व हो जाता है। शुद्धस्वभाव की श्रद्धा-ज्ञानरूप भक्ति, धर्मी जीव को एक क्षण भी छूटती नहीं है। ___मेरा ज्ञानानन्दस्वभाव है, उसमें गुण-गुणी के भेद का विकल्प भी मेरा (स्वभाव) नहीं है - ऐसा शुद्ध आत्मा का भान करना, वह पहली अपूर्व भक्ति है। जो श्रावक ऐसा भान करता है, वही भक्त है। शुद्धरत्नत्रय से मुक्ति होती है और राग से तो बन्धन होता है। निचलीभूमिका में भगवान की भक्ति, गुरु की भक्ति इत्यादि का शुभभाव आता है परन्तु ज्ञानी उसे आस्रव समझते हैं, वह निश्चय से परमभक्ति नहीं है; निश्चय से परमभक्ति तो अपने शुद्ध परमात्मा का भजन करना ही है। परमात्मतत्त्व के आश्रय से जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप पर्याय प्रगट होती है, वह भव-भय का नाश करनेवाली भक्ति है। इसके अतिरिक्त निमित्त से या राग से आत्मा को लाभ माने तो वह Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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