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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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जो जीव, आत्मा की रुचि और मिठास छोड़कर धन, शरीर तथा भोग की रुचि और मिठास करता है, वह जीव, आत्मस्वभाव की हत्या और भावमरण करता है। ऐसे भावमरण का अभाव करने के लिए करुणा करके आचार्यदेव ने सत्शास्त्रों की रचना की है।
क्षणिक विकार को अपना मानकर, आत्मस्वभाव का अनादर करना ही भावमरण है/मृत्यु है। इस भावमरण का अभाव, अमर आत्मस्वभाव की पहचान से होता है। इसलिए हे भाई! यदि तुझे भव-दुःखों का भय हो तो आत्मा को समझने की प्रीति कर! जन्म-मरण के अन्त की बात अपूर्व है, मूल्यवान् है और जिसे समझने की धगश जागृत होती है, उसे समझ में आ सके - इतनी सरल भी है।
जिस प्रकार कुंवारी कन्या, पिता के घर को अपना घर और उसकी पूँजी को अपनी पूँजी कहती है परन्तु जहाँ उसकी सगाई होती है तो तुरन्त ही यह मान्यता बदल जाती है और वह मानने लगती है कि पिता का घर और पूँजी मेरी नहीं है। जहाँ सगाई हुई है, वह घर और वर, मेरा है। देखो, मान्यता बदलने में कितनी देर लगती है? इसी प्रकार अनादि से संसार में परिभ्रमण करता हुआ जीव, शरीर को ही अपना घर मान लेता है परन्तु जहाँ ज्ञानी ने समझाया कि 'सर्व जीव हैं सिद्धसम, जो समझे वह होय' - अर्थात् सभी आत्माएँ अपने स्वभाव से सिद्ध समान ही हैं - ऐसी रुचि और ज्ञान हुआ, वहाँ एकदम रुचि बदल गयी और भासित हुआ कि यह पुण्य-पाप अथवा शरीर मेरा नहीं है; मैं तो सिद्ध समान हूँ, सिद्धपना ही मेरा स्वरूप है। जिस प्रकार सगाई होने के बाद भी वह कन्या कुछ समय तक
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