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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
आत्मा को समझने की प्रीति नहीं करता। अरे! मुझे अब चौरासी के अवतार का परिभ्रमण किस प्रकार मिटे? - ऐसा अन्दर में भव-भ्रमण का भय लगे तो आत्मा की दरकार करके सच्ची समझ का प्रयत्न करे।
देखो, यह जीव करोड़ों रुपये की आमदनीवाला सेठ तो अनन्त बार हुआ है और अनन्त बार ही घर-घर जाकर भीख माँगकर पेट भरनेवाला भिखारी भी हुआ है; आत्मा के भान बिना पुण्य करके बड़ा देव भी अनन्त बार हुआ है और पाप करके नारकी भी अनन्त बार हुआ है परन्तु अभी भी इसे भव-भ्रमण से थकान नहीं लगती है। आचार्यदेव कहते हैं कि भाई ! अब मुझे भव नहीं चाहिए' - इस प्रकार यदि तुझे भव-भ्रमण से थकान लगी हो तो आत्मा की प्रीति करके उसका स्वरूप समझ ! इसके अतिरिक्त अन्य कोई शरण नहीं है। ___ मुख्यरूप से मनुष्यभव में ही सच्ची समझ उपलब्ध होती है - ऐसा मनुष्यभव महादुर्लभ है। मनुष्यभव तो आत्मा की समझ करने से ही सार्थक है। लोग कहते हैं 'चलो भाई मेला देखने, यह मनुष्यभव फिर से नहीं मिलेगा, चलो मेले में।' अरे भाई! क्या तुझे मेला देखने के लिये यह मनुष्यभव मिला है ? अहो! अज्ञानी जीव यह मनुष्यभव प्राप्त करके, विषयभोगों में सुख मानकर अटक जाते हैं। जिस प्रकार बालक एक पेड़ा / मिष्ठान के मूल्य में लाखों का हार दे देता है; उसी प्रकार अज्ञानी जीव, पुण्य-पाप और विषयभोग के स्वाद में अमूल्य चेतनरूपी आत्मा को बेच देता है। महामूल्यवान् मनुष्यभव में आत्मा की समझ करने के बदले विषयभोग में जीवन गँवा देता है।
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