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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
___ अन्तर में स्व-पर का विवेक प्रगट किये बिना, मात्र दो हाथ, दो पैर, मुँह इत्यादि आकृति से ही मनुष्यपना नहीं समझना, क्योंकि यदि ऐसा मानोगे तो बन्दर को भी यह सब है; इसलिए उसे भी मनुष्य कहना पड़ेगा। ___'जिसके दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, दो कान, एक मुख, दो होंठ और एक नाक हों उसे मनुष्य कहना - ऐसा हमें नहीं समझना चाहिए। यदि ऐसा समझें तो फिर बन्दर को भी मनुष्य मानना चाहिए क्योंकि उसने भी तदनुसार सब प्राप्त किया है; विशेषरूप से उसके एक पूँछ भी है। तब क्या उसे महामानव कहें? नहीं, जो मानवता समझे, वही मानव कहलाता है।'
देह से भिन्न आत्मा का यथार्थ स्वरूप समझकर अन्तर में विवेक प्रगट करनेवाला ही मानव है। अमूल्य तत्त्वविचार में ही 'विवेक' सम्बन्धी पद श्रीमद् राजचन्द्रजी ने कहा है -
मैं कौन हूँ? आया कहाँ से? और मेरा रूप क्या? सम्बन्ध दुखमय कौन हैं ? स्वीकृत करूँ परिहार क्या॥ इसका विचार विवेकपूर्वक, शान्त होकर कीजिए। तो सर्व आत्मिकज्ञान के, सिद्धान्त का रस पीजिए॥
मैं यह देह नहीं, किन्तु आत्मा हूँ। मैं नया नहीं हुआ हूँ; मैं तो अनादि का हूँ। मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, रागादिभाव मेरा वास्तविक स्वरूप नहीं है। देहादि परवस्तुओं के साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार अन्तर में आत्मा का विचार और विवेक प्रगट करनेवाला, वह जीव आत्मिकज्ञान के सर्व तत्त्वों का अनुभव करता है। 'ज्ञानी कहते हैं कि यह भव बहुत दुर्लभ है, अति पुण्य के
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