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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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होने में वर्तमान की चतुराई भी कार्यकारी नहीं है। जीवों को बाह्य संयोग तो पूर्व प्रारब्ध अनुसार प्राप्त होते हैं। कहीं भगवान किसी को सुखी-दुःखी नहीं करते तथा संयोग का भी सुख-दुःख नहीं है। जीव स्वयं अपनी भूल से पराश्रित होकर दु:खी होता है और यदि आत्मा की पहचान करके स्वाश्रयभाव प्रगट करे तो स्वयं से स्वयं का कल्याण होता है।
हे जीव! अनन्त काल में महामूल्यवान् यह मनुष्यदेह और सत्समागम प्राप्त हुआ है; इसलिए अब तू अपने आत्मा की समझ कर।आत्मा की समझ किये बिना तूने अनन्त-अनन्त काल निगोद और चींटी इत्यादि के भव में व्यतीत किया है। अरे! वहाँ तो सत् के श्रवण का अवकाश भी नहीं था। अब यह दुर्लभ मनुष्यभव प्राप्त करके समझ का रास्ता ले। भाई ! अन्तर में आत्मा की महिमा आना चाहिए। पैसा, स्त्री इत्यादि की जो महिमा है, वह मिटकर अन्तर में चैतन्यस्वरूप की महिमा का भास होना चाहिए।
जिस प्रकार हिरण को अपनी नाभि में स्थित सुगन्धित कस्तूरी का विश्वास नहीं आता, इसलिए वह बाह्य में सुगन्ध मानकर परिभ्रमण करता है; इसी प्रकार इस जीव में अपने में ही अपनी प्रभुता भरी है, इसमें ही तीन लोक का नाथ परमात्मा होने की सामर्थ्य विद्यमान है परन्तु पामर को अपनी प्रभुता का विश्वास नहीं आता; इसलिए अपनी प्रभुता की महिमा विस्मृत करके बाह्य पदार्थों की महिमा करता है। इस कारण पराश्रय से संसार में परिभ्रमण करता है।
देखो, इस मनुष्यदेह में ही मुख्यरूप से आत्मा की समझ करने का अवकाश है। जब तक आत्मतत्त्व की महिमा को नहीं
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