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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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रुपये इत्यादि देना चाहिए न? तब दीवान ने कहा-इसे सात नहीं किन्तु चौदह जूते मारना चाहिए। राजा ने कहा-ऐसा क्यों? दीवान बोला-महाराज! इसे अस्सी वर्ष हुए और लड़के के घर लड़का हुआ तो भी अभी धर्म समझने की दरकार नहीं करता। यहाँ से मरकर कहाँ जायेगा? इसकी इसे दरकार नहीं है। इसने हीरा परखने में जीवन व्यतीत किया परन्तु आत्मा को परखने की दरकार नहीं की; जीवन पूरा होने आया तो भी धर्म की पहचान नहीं करता, इसलिए इसे जूते मारना चाहिए।
झवेरी का आत्मा पात्र था; इसलिए धर्मात्मा दीवान की बात सुनकर वह बहुत प्रसन्न हुआ और उसने राजा से कहा-महाराज! मुझे आपके रुपयों का इनाम नहीं चाहिए। दीवानजी ने जो कहा, वह योग्य है। उन्होंने शिक्षा देकर मुझ पर उपकार किया है, वही मेरा वास्तविक इनाम है। जो आत्मवेत्ता हो, या आत्मवेत्ता की भक्ति करके आत्मवेत्ता होने का आकाँक्षी हो, उसी का जीवन कृतार्थ है; अन्य जीवों का अवतार तो जूते मारने जैसा है। इस प्रकार समझकर झवेरी आत्मा की समझ करने लगा और उसने अपने अवतार की सफलता की।
चैतन्यस्वभाव के अतिरिक्त बाहर में कहीं सुख नहीं है। यदि संसार में सुख होवे तो धर्मात्मा उसे किसलिए छोड़े ? यदि पर में सुख होवे तो धर्मात्मा उसे छोड़कर आत्मा का ध्यान क्यों करे? इसलिए कल्पनातीत और इन्द्रियातीत आत्मा में ही सुख है, उसके सुख की प्रतीति कर और पर की ममता छोड़। जो आत्मा को समझे और उसकी प्रीति करे – ऐसे चैतन्य हंस को हम नमस्कार करते हैं। उसके अवतार की सफलता है।
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