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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 टीका में श्री जयसेनाचार्य ने बारम्बार 'सम्यक्त्व पर्याय' शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट कर दिया है कि सम्यग्दर्शन पर्याय है।
(देखो पृष्ठ 136-137-138) यह ऊपर बताया जा चुका है कि सम्यग्दर्शन, श्रद्धागुण की निर्मल पर्याय है। 'श्रद्धा' गुण को 'सम्यक्त्व' गुण के नाम से भी पहिचाना जाता है; इसलिए पञ्चाध्यायी (अध्याय 2, गाथा 945) में सम्यक्त्व को त्रैकालिक गुण कहा है, वहाँ सम्यक्त्वगुण को श्रद्धागुण ही समझना चाहिए। इस प्रकार सम्यक्त्व को गुण के रूप में जानना चाहिए । सम्यक्त्वगुण की निर्मलपर्याय सम्यग्दर्शन है। कहीं-कहीं सम्यग्दर्शन पर्याय को भी सम्यक्त्व' कहा गया है।
सम्यक्त्व-श्रद्धागुण-की दो प्रकार की पर्यायें हैं। एक सम्यग्दर्शन, दूसरी मिथ्यादर्शन। जीवों के अनादि काल से श्रद्धागुण की पर्याय मिथ्यात्वरूप होती है। अपने पुरुषार्थ के द्वारा भव्य जीव उस मिथ्यात्व पर्याय को दूर करके सम्यक्त्व पर्याय को प्रगट कर सकते हैं। सम्यक्दर्शन पर्याय के प्रगट होने पर, गुण-पर्याय की अभेद विवक्षा से यह भी कहा जाता है कि 'सम्यक्त्वगुण प्रगट हुआ है'। जैसे शुद्ध त्रैकालिक गुण हैं, वैसी ही शुद्धपर्यायें सिद्धदशा में प्रगट होती हैं; इसलिए सिद्धभगवान के सम्यक्त्व इत्यादि आठ गुण होते हैं - ऐसा कहा जाता है। द्रव्य-गुण-पर्याय की भेददृष्टि से देखने पर यह समझना चाहिए कि वास्तव में वे सम्यक्त्वादिक आठ गुण नहीं, किन्तु पर्यायें हैं।
श्रद्धागुण की निर्मलपर्याय सम्यग्दर्शन है, यह व्याख्या गुण और पर्याय के स्वरूप का भेद समझने के लिए है । गुण त्रैकालिक
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