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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 श्रद्धागुण तो आत्मा के साथ त्रिकाल रहता है, इस प्रकार द्रव्य-गुण को त्रिकालरूप जानकर उसकी प्रतीति करना, सो द्रव्यदृष्टि है
और यही सम्यग्दर्शन है। ___ जो जीव, सम्यग्दर्शन को गुण मानते हैं, वे सम्यग्दर्शन को प्रगट करने का पुरुषार्थ क्यों करेंगे? क्योंकि गुण तो त्रिकाल रहनेवाला है; इसलिए कोई जीव, सम्यग्दर्शन को प्रगट करने का पुरुषार्थ नहीं करेगा और इसलिए उसे कदापि सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं होगा; मिथ्यात्व दूर नहीं होगा। यदि सम्यग्दर्शन को पर्याय के रूप में जाने तो नयी पर्याय को प्रगट करने का पुरुषार्थ करेगा। जो पर्याय होती है, वह त्रैकालिक गुण के आश्रय से होती है और गुण, द्रव्य के साथ एकरूप होता है अर्थात् सम्यग्दर्शन पर्याय, श्रद्धागुण में से प्रगट होती है और श्रद्धागुण, आत्मा के साथ त्रिकाल है, इस प्रकार त्रिकाल द्रव्य के लक्ष्य से सम्यग्दर्शन का पुरुषार्थ प्रगट होता है। जिसने सम्यग्दर्शन को गुण ही मान लिया है, उसे कोई पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। सम्यग्दर्शन नवीन प्रगट होनेवाली निर्मलपर्याय है, जो इसे नहीं मानता, वह वास्तव में अपनी निर्मलपर्याय को प्रगट करनेवाले पुरुषार्थ को ही नहीं मानता। ___ शास्त्र में पाँच भावों का वर्णन करते हुए औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव के भेदों में सम्यग्दर्शन को गिनाया है। यह औपशमिकादिक तीनों भाव, पर्यायरूप हैं; इसलिए सम्यग्दर्शन भी पर्यायरूप ही है। यदि सम्यग्दर्शन गुण हो तो गुण को औपशमिकादि की अपेक्षा लागू नहीं हो सकती और इसलिए 'औपशमिक सम्यग्दर्शन' इत्यादि भेद भी नहीं बन सकेंगे, क्योंकि सम्यग्दर्शन,
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