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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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रुचि के साथ स्वभाव का अभ्यास करना ही स्वभाव का ज्ञान प्रगट करने का उपाय है - ऐसा आचार्यदेव श्लोक द्वारा बतलाते हैं।
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भगवती प्रज्ञाछैनी जिसकी अफर चोट आत्मानुभव कराती है ( स्त्रग्धरा )
प्रज्ञाछेत्री शितेयं कथमपि निपुणैः पातिता सावधानैः । सूक्ष्मेऽन्तः सन्धिबन्धे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य ॥ आत्मानं मग्नमंतः स्थिरविशदलसद्धाम्नि चैतन्यपूरे । बंधं चाज्ञानभावे नियमितमभितः कुर्वती भिन्न भिन्नौ ॥
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अर्थ • यह प्रज्ञारूपी पैनी छैनी प्रवीण पुरुषों के द्वारा किसी भी प्रकार से- यत्नपूर्वक - सावधानी से (अप्रमादभाव से) चलायी जाने पर आत्मा और कर्म दोनों के सूक्ष्म अन्तरङ्ग सन्धि के बन्ध में (आन्तरिक सान्ध के जोड़ में) शीघ्र लगती है। वह कैसे सो बतलाते हैं। आत्मा को जिसका तेज अन्तरङ्ग में स्थिर और निर्मलरूप से दैदीप्यमान है, ऐसे चैतन्य प्रवाह में मग्न करती हुई और बन्ध को अज्ञानभाव में निश्चल करती हुई, आत्मा और बन्ध को सब ओर से भिन्न-भिन्न करती हुई गिरती है ।
इस कलश में आत्मस्वभाव के पुरुषार्थ का वर्णन किया गया है, भेदज्ञान का उपाय दिखाया है । इस कलश के भाव विशेषतः परिणमन कराने योग्य हैं। 1. पैनीछैनी, 2. किसीप्रकार से, 3. निपुण पुरुषों के द्वार, 4. सावधान होकर चलाई जाने पर, 5. शीघ्र गिरती है - चलती है, इस प्रकार पुरुषार्थ के बतानेवाले पाँच विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं ।
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