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सम्यग्दर्शन : भाग-1] कुछ नहीं जानते, किन्तु आत्मा अपने चेतकस्वभाव के द्वारा जानता है। आत्मा का चेतकस्वभाव होने से और बन्धभावों का चेत्य स्वभाव होने से आत्मा के ज्ञान में बन्धभाव ज्ञात तो होता है, किन्तु वहाँ बन्धभाव को जानने पर, अज्ञानी को भेदज्ञान के अभाव के कारण, ज्ञान और बन्धभाव एक से प्रतिभासित होते हैं। चेतक -चेत्य भाव के कारण उनमें अत्यन्त निकटता होने पर भी, दोनों के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं। अत्यन्त निकट कहते ही भिन्नता आ जाती है।
चेतक-चेत्यपने के कारण अत्यन्त निकटता होने से, आत्मा और बन्ध के भेदज्ञान के अभाव के कारण उनमें एकत्व का व्यवहार किया जाता है; परन्तु भेदज्ञान के द्वारा उन दोनों की भिन्नता स्पष्ट जानी जाती है, पर्याय में देखने पर बन्ध और ज्ञान एक ही साथ हों – ऐसा दिखाई देता है; किन्तु द्रव्यस्वभाव से देखने पर बन्ध और ज्ञान भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं। ज्ञान तो आत्मा का स्वभाव है और बन्ध, बहिर्मुख विकारी वृत्ति है। बन्धभाव और ज्ञान की भिन्नता :
बन्धभाव, आत्मा की अवस्था में होता है; वह कहीं पर में नहीं होता। अज्ञानी को ऐसा लगता है कि बन्धभाव की वृत्ति आत्मा के स्वभाव के साथ मानों एकमेक हो रही है। अन्तरङ्ग स्वरूप क्या है और बहिर्मुख वृत्ति क्या है? – इसके सूक्ष्म भेद के अभान के कारण ज्ञान के घोलन में वह वृत्ति मानों एकमेक हो रही है, ऐसा अज्ञानी को दिखता है; इसलिए बन्धभाव से भिन्न ज्ञान अनुभव में नहीं आता तथा बन्ध का छेद नहीं होता। यदि बन्ध और ज्ञान को भिन्न जाने तो ज्ञान की एकाग्रता के द्वारा बन्धन का छेद कर
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